धूप से तपती धरा, तार-तार तन के वस्त्र, न शीश छुपाने की जगह, न एक बूँद पानी। पीड़ा से क्षत-विक्षत हृदय, आने वाले कल का कलुषित चेहरा अब आँखों के सामने मंडराने लगा।
बार-बार कराहने की आवाज़ से क्षुब्ध मन, पीड़ा के अथाह सागर में गोते लगाता हुआ। पलभर सहलाना फिर जर्जर अवस्था में छोड़कर चले आना। यही पीड़ा उसे और विचलित करती!
कुछ पल स्नेह से सहला आँखों ही आँखों में दो चार बातें कर, स्नेह का प्रमाण-पत्र उस के तपते बदन के पास छोड़ महानता का ढोल पीटती हुई, रुख़ घर की ओर किया.....!!!
इस बार तापमान सातवें आसमान पर था। पानी का स्तर पाताल को छूता, समेटा गंगा ने अपना जीवन। सूर्य धरा को अपने तेज़ से झुलसाता हुआ, अपने गंतव्य की ओर बढ़ ही रहा था कि मानव भी उसका सहभागी बन उसका उत्साहवर्धन करने में मग़रूर हुआ जा रहा था।
हृदय में सुलगता करुण भाव, आँखों में चंद आँसू और मैं अपने दायित्व से मुक्त हो बग़ीचे की बेंच पर बैठ मुस्कुराती हुई आने-जाने वालों को एक टक निहारती। कुछ पल अपने आपसे बातें करती हुई। इसी दिनचर्या में मैंने अपने आपको समेट लिया।
आज शाम कुछ अलग-सी थी। बादल के एक-दो टुकड़े भी मुझेसे मिलने आये, हवा भी आस-पास ही टहल रही थी। तभी आसमां में धूसर रंग उमड़ने लगा और मैं अपने आपको उसमें रंगती, भीनी-भीनी मिट्टी की ख़ुशबू से अपने आपको सराबोर करने लग। नज़ारा कुछ ऐसा बना कि आसमान में काले बादलों संग आँधी भी अरमानों पर थी।
(तभी ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़ ) मैं बैंच पर अपने आपको तलाशने लगी..
रीता --
(कुछ बौखलाई हुई ) चलो घर, पूरे कपड़े ख़राब हो गये, मिट्टी का मेक-अप उफ़ ! मेरा चेहरा....
संगीता --
(ढाढ़स बँधवाती हुई ) अरे! कुछ देर बैठ, हवा के साथ बादल भी छंट जाएँगे, वैसे भी काफ़ी अच्छी हवा चल रही है, आँधी से इतना क्यों परेशान हो रही हो? देख सूरज ने कितना जलाया है मुझे? वह अपना हाथ उसे दिखने लगी।
( सूर्य की किरणों से होने वाला त्वचा कैंसर आज समाज में आम-सी दिखने वाली बीमारी बन गयी है )
सुनीता -
( अपना मुँह बनाती हुई ) क़सम से यार कितनी धूप है यहाँ! चलो मेरे घर, कुछ देर एसी की हवा में ठहाके लगाते हैं।
रीता -
( सुनीता का समर्थन करती हुई ) चलो कुछेक कोल्ड ड्रिंक भी ऑर्डर कर देते हैं (उसने मेरी तरफ़ ताकते हुए कहा )
( मैं वहाँ ऐसे पेड़ की छाँव में बैठी जो आभास मात्र अपना एहसास करा रहा था | मुझे भी दिखावा मात्र ऐसे सहारे की आवश्यकता थी जो लगे मैं छाँव में बैठी हूँ। वो उजड़ा हुआ बग़ीचा अक्सर मुझसे बातें करता। मैं भी उससे काफ़ी बातें करती। घुलने-मिलने के बाद उसे सँवारने की काफ़ी कोशिश की पर नाकाम रही।)
अब वहाँ से सभी जा चुके थे पर मैं उसी बेंच से चिपक गयी। हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी होने लगी। एक-एक बूँद धरा के तपते बदन को छूती और अपना अस्तित्व गँवा देती। दस मिनट यूँ ही बारिश होती रही, एक बूँद भी धरा पर नज़र नहीं आयी। धरा की यह तपती काया अपनी अतृप्तता का बोध करती और व्याकुल नज़र आने लगी। ठूँठ बने उस छोटे से पेड़ से एक-एक बूँद टपकती और धरा से अपना स्नेह जताती इस स्नेह की साक्षी मैं शून्य का भ्रमण करती उन्हें देखती रही। एक बूँद भी उसने अपने तन पर नहीं रखी। एक-एक कर सभी बूँदें धरा को समर्पित कर अपने निस्वार्थ प्रेम का बोध करता सदृश्य। ज़ब भी उस सूखे वृक्ष को देखती हूँ उसका धरा के प्रति समर्पण शब्दों से परे. ...!!!!
संगीता -
(आश्चर्य से मुझे देखती हुई ) अरे दी आप यहीं बैठी हैं!
मैं -
जी आप भी बैठिए ( मैंने बड़प्पन दिखाया )
रीता -
नहीं वो मौसम अच्छा हो गया सो टहलने आ गये, वैसे हम....
(और उसने बेफर्स मुँह में डाल लिये )
संगीता -
आप अक्सर यहाँ आती हैं? ( बात बढ़ाते हुए कहा )
मैं -
जी (जब भी वक़्त मिलता है )
सुनीता -
( रेपर और कोल्ड्र-ड्रिंक की ख़ाली बोतल बेंच के नीचे डालती हुई ) चलो पार्क का राउंड लगाते हैं...
(और वो लोग वहाँ से चले गये )
आज तन धरा का जला, कल हमारा। बेख़ौफ़ दौड़ रहे किस राह पर.. !!
भविष्य का भयानक चेहरा, असंवेदनशील होती सोच, क्यों नहीं समझ रहे धरा का दर्द, कितना सहेगी और कब तक ?