अंधा बाँटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह के देय
"अरे! क्यों डबडबाए दीदे लिये फिरती है, तेरा खसम वापस आने वाला है? जब देखो दरवाज़े को घूरती रहती है,अब क्या आने-जाने वालों को खायेगी ? माथे की सलवटें कम हो गयीं हों तो एक कप चाय पिला दे आज बड़ी सर्दी है।"
गीता बुआ झोला चारपाई पर पटकती हुई उसाँस लेते हुए प्रीति से कहती हैं।
"आप इस तरह ताने न दिया करो बुआ जी।"
प्रीति चाय का कप गीता भुआ के हाथ में थमाती हुई कहती है।
"क्यों न कहूँ पिछले छ: महीने से तेरे घर का ख़र्चा उठा रही हूँ,जल्द ही मेरे पैसे सूद समेत वापस कर देना,ये लो इस बार दो हज़ार ही लायी हूँ।"
गीता बुआ जी पैसे प्रीति के हाथ में थमाती है।
"बुआ जी कोई अहसान नहीं करती हो, पेंशन मिलते ही लौटा दूँगी उधार के पैसे तो लाई में भी नहीं जलते।"
प्रीति अपने को कोसती हुई मन भारीकर वहीं बैठ जाती है।
" ये देखो कल की छोरियों के नखरे,रस्सी जल गयी पर बल नहीं गया। ठीक है नहीं कहेंगे परन्तु ऐसे कितने दिन ढोयेगी इस देह को.... अच्छा बता बिटवा की पेंशन कब से मिलनी शुरु हो रही है ? सुना है सरकार पेट्रोल पंप भी दे रही है ?"
गीता बुआ अपनी बात पलटते हुए कहती हैं।
"अरे कहाँ बुआ जी! रोज़-रोज़ बाऊजी सरपंच जी के यहाँ तक चप्पल घिस रहे हैं। अभी तक कोई ख़ैर-ख़बर नहीं है। अब तो हालत यह है कि कलेक्टर के ऑफ़िस में भी नहीं खड़ा होने देते। धक्के मार बाहर करते हैं। महीने-बीस दिन की हमदर्दी होती है फिर कौन सीधे मुँह बात करता!"
प्रीति ने लाचारी जताते हुए जवाब दिया।
"मैं तो पहले ही कहती थी कि दुनिया वाले भरे को भरते हैं ख़ाली को परे धरते हैं। मेरी सुनता कौन है।"
मुँह बनाते हुए गीता बुआ कहती हैं और एक निग़ाह प्रीति पर डालती हैं।
"यह क़सीदे की ओढ़नी तुम्हें शोभा नहीं देती बीनणी। किसी को दान कर दे। गाँव गळी वाले बाते बनायें तब मुझे मत कहना, तुम्हारे भले के लिये कहती हूँ।"
"अरे!आप ही लेते जाना एक-दो और रखी हैं।"
मन में गहरी टीस भरते हुए प्रीति ने कहा।
" एक बात कहूँ बीनणी। भगवान झूठ न बुलाये, हमारे गाँव में तो एक जवान कारगिल में शहीद हुआ था,चिनवा के बापू बोल रहे थे बहुत पैसे मिले हैं।"बुआ ने प्रीति का मन खगालते हुये कहा।
"अब क्या कहें आपको बुआ जी,जाने क़िस्मत ने क्या खेल खेला है।"
मिट्टी लगे हाथों से बाल ठीक करती हुई चूल्हे को मिट्टी से पोतती हुई प्रीति कहती है।
"और इधर कैसे आना हुआ बुआ।"
गली के बाहर से आवाज़ आती है।
"अरे यो गगन को छोरो है न, इने क्यों दीदा काडेह है,आपणे बिटवा से बड़ो दीखे घूँघट कर ले।"
गीता बुआ प्रीती से कहती हैं।
"हाँ आता-जाता रहता है,बाऊजी के पास।"
प्रीति कहती है।
"छोरो टंच है,बोली से ही पतो चाल रो है।"
बुआ प्रीति से कहती हैं। इसी बीच गगन का लड़का वहाँ पहुँचता है और बुआ से कहता है...
"बुआ टंच तो आज काल पैदा होते ही बच्चे बन जा हैं। मैंने तो फिर भी तीस साल खायीं हैं।थे बताओ दीदा-गोडा ठीक,ब्याज़ का धंधा चालू है कि छोड़ दिया ?"
"न बेटा के करणों घणों पीसा को, राम के घरा मुँह दिखाणों है। मैं हाल-चाल पूछती रहूँ बीनणी का। किम पीसो-टको चाहे तो पूछ ला और के कर सका,लाइ दुःख लिखा के लायी है अपने भाग्य में। अच्छा छोरा एक बात बता ब पेट्रोल पंप मिलता बताया न शहीद की विधवा को ऊको के होयो।"
यह कहते हुए बुआ ने अपनी व्याकुलता दिखायी।
"अरे बुआ! वह कहावत तो सुनी होगी आपने,अंधा बाँटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह के देय। देश की यह हालत हो रही है,मिल गये जिसको मिलना था और ऐसी जगह मिले है जहाँ कोई आता-जाता ही नहीं है,थे बताओ इन्हें पेंट्रोल पंप लेवण आवे हो के महीने में एक बार?"
वह अट्टहास करता हुआ वहाँ से चला जाता है।
© अनीता सैनी
वाह बहुत शानदार व्यंग्य मुहावरे पर सटीक सृजन ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखनी।
सादर आभार आदरणीय दीदी
Deleteबहुत बढिया व्य6ग, अनिता दी।
ReplyDeleteवाह बहुत ही बेहतरीन 👌👌
ReplyDeleteसुगढ़ संतुलित लघुकथा जो व्यक्ति, समाज, रिश्ते,देश और सरकार व प्रशासन को संक्षिप्तता के दायरे में चित्रित किया है. स्थानीय बोली और मुहावरों व कहावतों का सटीक प्रयोग लघुकथा को रोचक और मनोरंजक बनाता है.
ReplyDeleteप्रस्तुत लघुकथा उत्कृष्ट लघुकथा के मानदंडों को लगभग पूरा करती नज़र आती है.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
वाह!!प्रिय सखी ,बहुत खूब !!
ReplyDeleteअनीता, तुम्हारी कहानी में सच ही सच है.
ReplyDeleteकारगिल के शहीदों में अल्मोड़ा के कई जवान सम्मिलित थे. सरकार से पैसे, पेंशन, नौकरी और अन्य सुविधाओं के लिए शहीदों के घरों में ही मारा-मारी होते हुए मैंने देखी है. पैसे को लेकर शहीद की विधवा से शादी करने की लोगों में होड़ रहती थी. लक्ष्मी जी की भक्ति कैसे एक त्रासदी को गृह-कलह में बदल देती है, यह देख कर रोना भी आता है और शर्म भी आती है
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२० जनवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुन्दर और रोचक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत खूब रही!
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी व्यंग्यात्मक लघुकथा लिखी है आपने अनीता जी! सचमुच अंधा बाँटे रेवड़ी के मुहावरे पर फिट बैठती हुई....
ReplyDeleteहृदयस्पर्श करती सुंदर लघु कथा ,अनीता जी
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteअधम नैतिकता का वीभत्स चेहरा !!!
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