"सुबह-सुबह क्यों मुँह गुब्बारे-सा फुला रखा है?"
रामू चिलम पर पतँगी रखता हुआ सीता से कहता है।
"क्योंकि तुम्हारी लॉटरी खुल गयी है और मैं महारानी की तरह ग़ुरूर पालने का प्रयास कर रही हूँ।"
सीता घर में झाड़ू लगाती हुई झुँझलाती है।
"अरे तू फ़िक्र क्यों करती है, देखना एक दिन मैं तेरे लिये झाड़ू भी ऐसी लेकर आऊँगा कि वह अपने आप ही घर साफ़ करेगी। तू यह कांस-बाँस की झाड़ू भूल जा, देख आज मेरा दोस्त आने वाला है ज़रा खाना अच्छा बना लेना और इस चारपाई पर अच्छी-सी चादर डाल दे।"
रामू अपनी पत्नी को अपनी समझ से समझाते हुए चिलम का सुट्टा भरता है।
"तुम थकते नहीं हो झूठ का स्वाँग गढ़ते हुए, क्यों करते हो दिखावे का ढकोसला?"
सीता रामू के पास बैठकर चूल्हे की आग के सामने ठंड से ठिठुरते हाथों को गर्म करने लगती है।
"तू समझती क्यों नहीं वे बहुत पैसे वाले लोग हैं अगर दिखावा नहीं करेंगे तो वे अपने बराबर में नहीं बैठाएँगे और देख एक अच्छी-सी लुगड़ी ओढ़ लेना नहीं तो कहेगा अपनी पत्नी को ढंग के कपड़े नहीं पहना सकता।"
रामू अपनी पत्नी को समझाता हुआ घर में रखा कुछ टूटा-फूटा सामान चारपाई के नीचे छिपाता है।
"बस-बस रहने भी दो इतने बादशाह भी मत बनो।"
सीता रसोई में कुछ काम करने लगती है कुछ देर बाद दरवाज़े पर किसी के साथ रामू की बातचीत करने की आवाज़ आती है साथ ही बग़ल वाले घर से ज़ोरों से गाना बजता है 'जय-जय करा स्वामी देना साथ हमारा। रामू की पत्नी को लगता है जैसे अतिथि सत्कार में चार चाँद लग गये हों।
"अरे!वाह!रामू तू तो बड़ा पैसे वाला हो गया तेरे तो चाल-ढाल ही बदल गये।"
रामू का दोस्त विनोद रामू से कहते हुए खिसियाता है।
"अरे! कहाँ भाई साहब इनकी तो आदत है। "
सीता अपने आप को सँभालती हुई अपनी लाचारी दर्शाती है। "
"अरे! कुछ चाय-पानी का बंदोबस्तकर यहाँ खड़ी बातें बना रही है। "
रामू अपनी पत्नी को हल्के ढंग से फटकारता है। "
"नहीं!नहीं!! इसकी आवश्यकता नहीं है। "
विनोद रामू की पत्नी से कहता हुआ वहीं चारपाई पर बैठता है। "
"अरे! कुछ खाने-पीने के लिये भी बना, काफ़ी दिनों बाद आया है मेरा यार। "
रामू अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहता है। "
"अच्छा तो रामू! मैं जो तुझे प्लास्टिक का सामान कम दाम में देता था उसके अब पैसे बढ़ाने पड़ेंगे।कम्पनी में घाटा बढ़ गया यार और तुम्हारी तो अब आर्थिक स्थिति भी ठीक हो गयी है।तुझे कोई परेशानी थोड़ी है। "
विनोद अपनी निगाह घर में चारों तरफ़ दौड़ाता है। "
"अरे! मैं तो सोच रहा था तू और मदद करेगा।"
रामू हक्का-बक्का-सा रह जाता है।
"अरे! अब तू पहले वाला रामू नहीं रहा। देख! तू चिलम से हुक़्क़े पर आ गया, पहचान अपने आप को।
विनोद हुक़्क़े का सुट्टा मारता हुआ कहता है।
रामू सोच में पड़ गया इस दिखावे के हुक़्क़े के ख़ातिर बीवी-बच्चों की कितनी ही आवश्यकता का गला घोंटा था उसने।
"अब देख! यार तू मेरे बराबर का हो गया है। अच्छा-ख़ासा कमाने लगा है। देख! विकसित और विकासशील की यही परिभाषा है। अब तुझे देख लगता तू सक्षम है इस तरह ठाढ़ बाढ़ का जीवन जी रहा है बराबर में बैठना सीख जा,किसी से लेना नहीं देना सीख जा।
रामू अपने लंगोटिया यार की मतलबी बातें सुन गहरी सोच में पड़ गया और बड़बड़ाने लगा-
"सब मतलब के यार!"
रामू का उत्साह वहीं बिखर-सा गया, वह अपने ही गहरे विचारों के भँवर में डूब गया।
रामू का उत्साह वहीं बिखर-सा गया, वह अपने ही गहरे विचारों के भँवर में डूब गया।
©अनीता सैनी