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Monday, 30 March 2020

पिता मानव की सज़ा तय

    एक ऋतुकाल बसंत बीत रहा था और पतझड़ के मौसम की आहट पीपल और नीम के पीले होते पत्ते दे रहे थे।तीन महीनों से वातावरण में मानव ज़ात की ओर से पशु-पक्षिओं और प्रकृति को कोसने की रट गूँज रही थी।अनावश्यक विलाप सुनकर बरगद ने सभा आयोजित करने की मुनादी पिटवायी।सभा आहूत हुई ।

"घटना की गंभीरता को समझो! वह अपने किये का प्रायश्चित करना चाहता है।"

हवा ने अपना रुख़ विनम्र करते हुए कहा। 

"नहीं! नहीं!! अभी नहीं... कुछ दिन और ठहरो, पिता मानव की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। वह पल-पल अपना रुख़ बदलता है; कभी खाना खिलाता है तो कभी मुझे ही खाने को लालायित रहता है।"

खरगोश कुछ घबराया-सा अपना मंतव्य सभा के समक्ष रखता है। प्यारी-सी मुस्कान और कुछ सुकून के साथ अपनी सीट गृहण करता है। 

"ठीक ही कह रहे हो, भाई खरगोश मैंने भी बदलते तेवर देखे हैं पिता मानव के,मुझे  मारता तो है ही कभी-कभी वह मेरे परिवार के सींग भी चुरा लेता है।"

हिरणी से अब सब्र नहीं हुआ। खरगोश के मत के साथ अपना मत भी रखने चली आयी। 

सोचा ऐसे तो कोई सुनता नहीं है शायद ऐसी स्थिति में कोई मेरे मत पर विचार करे। 

"यह क्या बात हुई,भला मारना तो ठीक है परंतु चोरी का इल्ज़ाम!

 हे माँ प्रकृति! देख तेरे बच्चों को तेरे बनाये मानव पर इतना बड़ा इल्ज़ाम।"

लोमड़ी अब अपना ड्रामा दिखाने लगी। सभा में उसे अपनी उपस्थिति जो दर्ज करवानी थी। 

"ठीक है ठीक है....  तुम आयी हो आज सभा में तुम्हारी उपस्थित दर्ज हुई अब बैठो सीट पर। 

कौए ने अपनी चतुराई दिखायी और चोंच को दो बार अपने ही तन से  साफ़ किया। 

"मैं सहमत हूँ बहन हिरणी से, मेरे तन की तो छोड़ो;दाँत तक चुराये हैं पिता मानव ने। 

हाथी कुछ सुस्ताया-सा अपना मंतव्य सभा के समक्ष रखता है। 

"गुनाह तो बहुत संगीन है।जब हम स्वयं बिन माँगे पिता मानव की जाएज़-नाजाएज़ सभी माँगें पूरी कर रहे हैं  तब चोरी नहीं करनी नहीं करनी चाहिये थी। चोरी से बड़ा कोई गुनाह नहीं।"

बूढ़े बरगद को भी यह गुनाह संगीन लगा।कुछ पल विचार किया फिर अपनी दाढ़ी को सहलाया और आदेश दिया -

"ठीक है... एक पहर के ठहराव के लिय सभा मुल्तवी की जाय फिर गुनाह की सज़ा सुनायी जाएगी।"

सभा में एक दम सन्नाटा छा गया। 

पिंजरे में क़ैद मानव के चारों तरफ़ बैठे सभी पशु-पक्षियों का एक ही विषय पर विचार चल रहा था कि सज़ा कैसे बढ़ायी जाय मानव की। 

सभी ने विचार किया, चलो पानी के पास चलें; उसके बयान से नहीं बच पाएगा।

"नहीं नहीं...यह ठीक नहीं है। वह बहुत पवित्र है। साफ़ मन है उसका, माफ़ कर देगा !"

बबूल ने अपनी समझदारी दिखायी।

"चल कँटीले !चुप कर,चलो पानी के पास चलते हैं। "

गिलहरी भी अब अपना दिमाग़ लगाने लगी। 

"नहीं! ठीक कह रही है गिलहरी, एक पखवाड़े पहले मिला था मैं पानी से। आँसू छलक रहे थे मानव के कृत्य पर। गंदी पड़ी देह दिखी पानी की फिर भी मानव मानव पुकार रहा था।"

यहाँ ऊँट ने अपनी हाज़िर-जवाबी से सभी के क़दम रोक दिये।

"कहीं  नहीं जाना। अरे! तुम सब क्या कम हो,क्यों भूल रहे हो तुम्हारे अपनों की मृत देह से वह ख़ुशबू जैसा कुछ बनाता है, यह तो लालसा की अति हुई न। "

लोमड़ी ने फिर अपना दिमाग़ चलाया और अपनी समझदारी पर इतरायी।"

"बात तो ठीक है बहना, कभी-कभी वह मेरे सामने भी दड खिंच जाता है। मुझे लगता है चल बसा फिर दौड़ जाता है।"

भालू ने अपने बदन को खुजाते हुए कहा। 

"अरे! तुम भी तो बोलो गाय,कुछ तुम्हें भी तो परेशान करता होगा।"

दूर से आये बगुले ने गाय को उकसाते हुए कहा। 

"परेशान तो करता है परंतु खाना भी तो देता है। इतने निर्दयी भी मत बनो,आख़िर है तो हमारा पालनहार।"

"अच्छा ठीक है ठीक है  तुम घर जाओ।" 

कुछ जानवरों की एक साथ आवाज़ आती है। 

सभी सोच-विचार में लगे थे कि ऐसा क्या किया जाय  जिससे सज़ा की अवधि बढ़ायी जा सके। 

"ऐसे कहो न कि वह अच्छे मासूम सुंदर जानवरों को पहले पालता है फिर धीरे-धीरे उनकी नश्ल ही मिटा देता  है। 

"अरे! चुप कर चिड़िया, इस बार उसे चमगादड़ ने फँसाया है जिसे दिन में ठीक से दिखता भी नहीं है।"

अब कबूतर फड़फड़ाया और कहने लगा -

"उसे सभी ने माफ़ कर दिया। पृथ्वी को क्या कम दर्द दिया है, खा गया उसके खनिज-पदार्थ, पूरी देह बंजर कर डाली। ऊँट ने क्या कहा, सुना नहीं !पानी ने भी माफ़ कर दिया उसे। 

"चलो एक पहर पूरा हुआ, सभा में चलते हैं।इस बार मैं कुछ करता हूँ।"

सभी चूहे को हैरानी से देखते हैं और उसके पीछे-पीछे चलने लगते हैं।  

"हाँ !चलो इस महाशय की बात में दम है, मेरी भी इसी ने मदद की थी।"

शेर ने भी चूहे की बात पर सहमति जतायी और सभी ने सभा में अपनी-अपनी सीट गृहण की। 

"मारने से ज़्यादा चोरी का जुर्म संगीन है। हिदायत देकर नहीं छोड़ सकते लिहाज़ा प्रकृति-पुत्र है और वक़्त-बे- वक़्त हम एक-दूसरे के काम भी आते हैं और रही बात कोरोना वायरस की वह तुम में से किसी ने नहीं मानव के स्वयं के शरीर की देन है। वह इसी की देह से पनपा  है। 

हाँ! चमगादड़ का डीएनए मिला है परंतु इसने एक अदृश्य प्राणी पैदा किया है। हाँ! लिहाज़ा चोरी के जुर्म में मानव को इक्कीस दिन की सजा दी जाती है। सभी प्राणी अपने-अपने घर की ओर  प्रस्थान करें।  मानव को ख़ास हिदायत है कि वह अपने ही घर में इक्कीस दिन और क़ैद रहे।अब सभा संपन्न हुई।"

"अरे! तुम तो कह रहे थे न कुछ करोगे, क्या हुआ?"

अब ज़्यादातर जानवर चूहे के पीछे उसकी चापलूसी में लग गये। 

"हाँ! प्लान तो किया था, देखता हूँ कितना सफल रहता है।"

चूहे ने गर्दन झुकाकर झेंपते हुए कहा। 

©अनीता सैनी

Sunday, 22 March 2020

तब तुम लापरवाह नहीं थे


   विश्व में महामारी का दौर चल रहा था। भारत में भी वह अपने पैर पसार रही थी। प्रत्येक सौ वर्ष के बाद कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा था। १७२० में प्लेग ,१८२० में कॉलेरा, १९२० में स्वाइन फ्लू ,२०२० में कोरोना का प्रकोप।

चीन के वुहान शहर से निकलकर यह महामारी विश्व के ज़्यादातर देशों में फैल चुकी थी। इटली में चीन के मज़दूर ज़्यादा है। वहाँ इसने अपना क़हर ज़्यादा ढाया। भारत में इससे अब तक चार मौतें हो चुकी थीं। न्यूज़ पेपर, टीवी चैनल पर भी देश-विदेश की यही घटनाएँ। काफ़ी लोगों के वीडियो वायरल हो रहे थे जो इस वायरस से पीड़ित थे उन्हें देख मन सिहर उठता। ऐसे में किसी अपने को लोगों के बीच भेजना कितना कष्टदायी होता है। इसी स्थिति से जूझ रही थी जूही। वह नहीं चाहती थी कि घर का कोई भी सदस्य बाहर निकले। जैसे-तैसे करके महीने- बीस दिन में सब ठीक हो ही जाना था।

"आप आवेदन भेजकर देखें छुट्टी मिल जाएगी। ऐसी  स्थिति में सफ़र करना ठीक नहीं है। "

जूही जब देखो एक ही रट लगाए जा रही थी। कभी झुँझलाती ख़ुद पर कभी पति पर।

रितेश जूही की बात काटता हुआ-

"मैंने यात्रा के लिये ज़रुरी  सामान रख लिया है तुम और बच्चे घर से बाहर बिलकुल मत निकलना जब तक सब कुछ सामान्य नहीं हो जाता।"

रितेश को बार-बार पत्नी और बच्चों की फ़िक़्र सताये जा रही थी।

"कुछ और सामान चाहिए अभी बता देना, कल फिर मेरा निकलना होगा। तुमलोग भूल कर भी बाहर नहीं निकलना।"

"जब देखो एक ही रट लगाए जा रहे हो। हम बच्चे नहीं हैं। और आप कुछ न कुछ लेने बाहर जा रहे हो वह क्या?"

बेचैनी में सिमटी जूही अपने आप को सँभाल नहीं पा रही थी।

"अरे! मेरी फ़िक़्र मत करो। मैं सारी सावधानियाँ रखता हूँ।"

रितेश ने जूही की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा और फिर लापरवाही से टीवी का चैनल बदलने लगा।

"पापा आपको विदेश भी जाना है। क्या यह सही समय है?"

बड़े बेटे ने अपनी चिंता व्यक्त की।

"देखते है बेटा सरकारी आदेश पर हैं।"

रितेश उसाँस भरता हुआ कहता है।

"मम्मी को कैसे समझाओगे? कैसे जल रही है ग़ुस्से में। सुबह से एक शब्द मुँह से नहीं निकाला। आज मुझे भी नहीं डाँट रही है।"

दोनों मिलकर जूही  की हँसी उड़ाते हैं।

"घर इतना बड़ा भी नहीं है कि मुझे कुछ सुनाई नहीं दे।"

जूही खाना बनाती हुई कहती है।

"अरे! हम तो कह रहे हैं तुमसे घर की रौनक है। 

ख़ुशनसीब हूँ जो पत्नी की डाँट मिलती हैं।"

यह कहकर बाप-बेटे दोनों हँसने लगते हैं।

"हर बात का मज़ाक़ ठीक नहीं। आप अपनी छुट्टी बढ़वाइए न, एक बार फोन तो करो।"

जूही इस बात से उबर ही नहीं पा रही थी।

"अरे! यार जाना तो है ही आज नहीं तो कल। "

रितेश अपना सामान पैक करते हुए कहता है।

"आप कितने लापरवाह हो। आपको हमारी फ़िक़्र है और अपनी नहीं। आप ऐसे कैसे हो सकते हो?"

जूही सफ़र के लिये  खाने का सामान पैक करती हुई बड़बड़ाती है और बाँधती है साथ में  अनगिनत हिदायतों की पोटली।

जूही स्टेशन तक रितेश को सी-ऑफ़ करने आयी तो सारा शहर सन्नाटे में डूबा हुआ था। वे दोनों अपनी कार से स्टेशन पहुँचे थे। शाम के छह बज रहे थे। सड़कों पर इक्का-दुक्का वाहन ही नज़र आ रहे थे। सर्दी कमोबेश अब विदा हो चुकी है फिर भी रितेश ने सफ़ेद हाफ़ स्वेटर पहना हुआ था। कल प्रधानमंत्री ने देश में 'जनता कर्फ़्यू' का आह्वान किया है। 

पति को विदाकर जैसे ही जूही कार में बैठती है तभी फ़ोन बजता है-

"मैम सर का फोन नहीं लग रहा,उन्होंने छुट्टी के लिए अप्लाई किया था वह सेंक्शन नहीं हुई, उन्हें अर्जेन्ट ड्यूटी पर पहुँचना है।"

जूही की आँखें भर आयीं वह क्यों नहीं समझ पायी रितेश की ख़ामोशी। 

© अनीता सैनी


Sunday, 15 March 2020

मन,मानव और मानवता

मन,मानव और मानवता का हेप्पीओलस के समूह का होना। यथार्थ नहीं मेरी एक मात्र  कल्पना ही है।हुआ था विवाद मन, मानव और मानवता के मध्य। बुद्धि  खेल रही थी यह खेल। मासूम मन बहक गया। मानव ख़ामोशी से इनके शिकंजे में फंसता गया। मानवता तार-तार बिखरती रही,अस्तित्त्व अपना तलाशती हुई। जद्दोजहद करती बुद्धि  से विनाश के कगार पर बैठ गयी। सबसे प्रभावी होते हुए, हार कैसे गयी।आज इसी विडंबना के साथ लड़खड़ा रही है। चल क्या रही है वह भी थक गयी। शायद हार गयी बुद्धि के हाथों।लड़खड़ाती मानवता जब टूट रही थी  तभी खिला था हिम्मत का पुष्प।  प्रथम पुष्प खिला था पृथ्वी पर। वह वर्ष का अंतिम महीना ही था समय की समझ ने कहा वह १३ दिसंबर को खिला था।  इंसान कब आया,कैसे आया; कहाँ से आया सब रहस्य है और अपने आप को मिटा फिर एक बार रहस्य बन रहा है। उसे पता है यह राह विनाश की तरफ़  है फिर भी चलता जा रहा  है। मानवता उसे पुकार रही है। वह पूर्णतय: बुद्धि के गिरफ्त में आ चुका है। वह साजिशें  रचती है मन के साथ मानवता को मिटाने की। शायद कामयाब भी हो रही है। मैं देख रही हूँ आज २०२० में उसे मरते हुए। वह कहीं नहीं है। मानव लगाता  है मानवता का मुखौटा परंतु अहं की बरसात होते ही  वह टूट  जाता  है। उस रोज़  भी ऐसा ही हुआ। मानवता मर गयी परंतु  न जाने क्यों उसने हार नहीं मानी। वहीं खिला था वह सुंदर फूल हेप्पीओलस के समूह का। मन -बुद्धि का गहरा दोस्ताना  है। सलाह समझाइश  होती रहती है। 
"मैं स्वर्ग-सा साम्राज्य तुम्हें सौंप इस लोक का राजा बना दूँगी परंतु तुम्हें मारना होगा मानवता को। "
बुद्धि मानव का उत्साहवर्धन करती हुई ग़ुरुर से अपना वर्चस्व फैलती है। समय के समुंद्र पर सजता है अखाड़ा इनका। चारों ओर गूँजता है एक ही स्वर। मारो-मारो! .... एक दूसरे की हत्या,हत्या मानवीय मूल्यों की अब आम बन गयी। विधि कुछ भी कहे। ख़ुन बहना चाहिए। बुद्धि का यही संदेश था मानव को।
 "जब से सुविधा मिली मेरे सपनों को पँख मिले। जाने क्यों मेरा जीवन सिमट गया।"
लाचार मानव मन से टकरा गया और दोनों ने यही प्रश्न बुद्धि से किया। सजग भाव भरी  सभा में कुछ जागरुक से लगे। परन्तु पाँव अब भी कुछ लड़खड़ाये हुए थे। यहीं बुद्धि ने जाल अपना बुना। 
" कहती हूँ मानव समझा मन को अपने,जीवन सिमट गया। कर हत्या मानवता की राजा धरा का कहलायेगा। सुंदर कन्या सुख की दूँगी तुझे थमा।"
 अतृप्त मानव कुछ ललचाया राज्य और राजकुमारी के सुंदर स्वप्न में खोया। अहं के तंतु पर हो सवार युद्ध की भारी हुँकार। क्रोध की ज्वाला, मानवता पर विजय, द्वेष ने थपथपायी थी पीठ।बेटे के हाथों माँ की हत्या बुद्धि रच रही यही खेल। मानव के हाथों मानवता की हत्या रहस्य बना था यह गंभीर।
"सुख की पुत्री तृप्ति नहीं किसी लोक में, ठग रही बुद्धि पुत्र अवचेतन से चलो चेतन में विनाश की राह का है यह द्वार।"
मानव, मन और मानवता समझ चुके थे खेल बुद्धि का तभी कहा मानवता ने - 
"मार सकती हो तुम हमें, हरा नहीं सकती हो तुम।"
समझ चुकी थी बुद्धि हराना है बहुत कठिन अन्य इन्द्रियों को दिया आदेश सभी से मिलकर मन, मानव और मानवता का किया शीश क़लम। मन मानव का रोया मानवता फिर भी मुस्कुरायी। तीनों की तलवार वहीं  धरा पर देखते ही देखते सुमन हेप्पीओलस का वहीं  खिल गया।  मूल में मानव, तने में मन और पुष्प मानवता का खिल गया। 

©अनीता सैनी 

Friday, 13 March 2020

अरी पगली! यही तो भाईचारा है।




ज़िंदगी की आपा-धापी से थक-हारकर, बड़े ओहदे पर सफ़ेद चादर डाल सादगी से अपना जीवन बिताना चाहते हैं सिद्धार्थ बाबू। नहीं देखना चाहते तारीख़ों से भरा कलेंडर। दिन, महीने और साल सभी से बाहर निकलकर  खुले आसमान से करना चाहते हैं बातें। 
कुछ समय पहले जब वे खाना खा रहे थे,  रोटी का निवाला उनके हलक में अटक गया। उन साठ सैकंड में उन्होंने ज़िंदगी को बड़े क़रीब से देखा है। अब वे दिखावे से दूर जीवन में शांति और सुकून सँजोते हुए अपने पैतृक गाँव वापस आ गये। 
एक ओर जहाँ गाँव वाले शहरी ठाठ-बाठ दिखाने का प्रयत्न करते हुए एश-ओ-आराम का साज़-ओ-सामान ख़रीदते हैं  वहीं सिद्धार्थ बाबू धोती-कुर्ता और चमड़े की जूती पहनते हैं। घंटों बिजूका की भाँति गेहूँ के खेत में खड़े रहते हैं। आवारा पशुओं को आँखों के सामने खेत में चरने देना और तो और अब वे उन्हें पानी भी पिलाने लगे। पत्नी की फटकार हवा के झोंके की तरह बग़ल से निकल जाती है।  इन्हीं हरकतों से गाँव वालों ने नाम भोला रख दिया।  कभी-कभी पास में ही रहने वाले बंजारे हुक़्क़ा-चिलम के लिये आने-जाने लगे। उन्हें अब खाना भी परोसा जाने लगा। पत्नी अपना आपा खो बैठती तब एक ही शब्द मुँह से निकलता था-
"अरी पगली! यही तो  भाईचारा है। कितना दिखाएगी रईसी। आ अब ज़रा ज़मीन पर बैठ,  देख खाने से ज़्यादा खिलाने में मिलता है सुकून। तेरी वजह से चार पेट पेटभर खाना खाते हैं।सोच कितना पुण्य कमाया है तूने।"
तभी दरवाज़े पर आहट होती है-
"ताऊजी¡ बापू ने पाँच सौ रुपये  मँगवाए हैं।"
यह बबलू का लड़का था जो क़ैदी की भाँति मुँह लटकाये खड़ा था। 
"ले भाई¡ पैसे तो ले जा परन्तु जल्दी दे दीयो अपने बापू से  बोल दियो नहीं तो तेरी ताई मुझे घर से निकाल देगी। 
सिद्धार्थ पत्नी का मान बढ़ाते हुए कहते हैं।वह बच्चा वहाँ से चला जाता है। 
"ख़ैरात बाँटनी शुरू कर दो,देख रही हूँ जब से गाँव आये हो मेरे अपने-अपने की रट लगा रखी है।"
वह पास ही रखे मूढ़े पर बैठ जाती है और अपने पैरों की थकान दिखाने लगती है। 
सिद्धार्थ बाबू पास आते हैं और कहते हैं-
"कहो तो तुम्हारे पैर दबा दूँ।" दीवार पर रखे बर्तन में वह पानी डालते हुए कहते हैं। तभी वहाँ  लंबे-से घूँघट में छोटे भाई के बेटे की बहू एक कपड़े में बँधे सरसों के पत्ते लिये खड़ी थी। वे  आवाज़ लगाते हैं-

 "आ बैठ बेटा मैं तो गाँव में  जा रहा हूँ।अपनी ताई-सास से  बोल, आज तो चूल्हे पर बनाओ रोटी-सब्ज़ी। घणा दिन हो गा चूल्हे की रोटी खाया। " यह कहकर वे वहाँ से चला जाते हैं। 
अब वह नवल वधू समझ गयी कि उसे खाना बनाकर ही जाना है वह भी चूल्हे पर। 

Tuesday, 10 March 2020

वे अक्सर जला दिये जाते हैं


अक्सर  मौसम के साथ साझा  समझौता किया जाता है। दिसंबर से फ़रवरी माह के बीच स्वतः ही आग लग जाती है या कहें लगा दी जाती है। इस बार की आग ने एक बिलियन पशु-पक्षियों की ज़िंदगी निगल ली। अठारह बिलियन हैक्टर के पेड़ कोयले में तब्दील हो गये । उनकी जलन असहनीय थी उनकी तड़प शब्दों से परे अपना मर्म तलाशते हुए। प्रत्येक जीवात्मा से प्रश्न करते हैं।  
वहीं आग की लपटों से घिरे कुछ वृक्ष अपनी आग भुझाने का आग्रह करते हैं।उनकी छाँव में पल रहे जीव-जंतुओं की दुहायी देते हैं। अपने आप को फलों से लदे होने का कारण बताते हैं । प्राणवायु का वास्ता देते है परंतु सब विफल रहता है। तभी वृद्ध वृक्ष कराहता हुआ आवाज़ लगता है-
"अरे भाई! कुछ बूँदें पानी की डाल दो देह पर।"
धधकती आग में कराहते हुए कुछ वृद्ध वृक्षों की आवाज़ थी यह।
"थोड़ी प्रतीक्षा और करें।आदेश आता ही होगा।"
यह भालू की आवाज़ थी। जो हाथों में पानी का पाइप लिये खड़ा था।
वह वृक्षों की आवाज़ अनसुनी कर प्रतीक्षा कर रहा था।जंगल के राजा शेर की जिसके आदेश पर आगे की कारवाही शुरु होनी थी।
"मेरी छाँव में पल रहे इन नन्हे जीव-जंतुओं पर तो रहम करो।"
जलन से कराह रहा वृद्ध बरगद अपनी असहनीय पीड़ा से बार-बार आग्रह को उतारु था।
"बस कुछ प्रतीक्षा और करो महामहिम राउंड पर निकले हैं आते ही होंगे।"
हाथी ने अपनी सूंड में  कुछ पानी भरा और पेड़ों पर डालना शुरु किया जिससे कुछ छोटे पौधो को राहत मिली जो कि कुछ हद तक जल चुके थे।
" अभी क्यों...कोयले पर साझा समझौता हुआ था न अडानी।"
यह लोमड़ी की आवाज़ थी जो हाथी को कुछ संमरण करवा रही थी।
हाथी अपने झुंड के साथ वहीं  बैठा-बैठा अपनी लाचारी पर आँसू बहाने लगा।
जंगल की आग अब अपना रुख और प्रचंड कर चुकी थी। पेड़ों के साथ-साथ अनगिनत पशु-पक्षियों के चिलाने की आवाज आ रही थी। जिनके पास शायद जंगल से बाहर आने की सुचना नहीं पहुँच पायी या हो सकता है। आग समय से पहले लगी या लगायी गई हो।
धुएँ के बढ़ते प्रकोप से कुछ सभ्यता के रखवालों को अब सृष्टि विनाश की आशंका हुयी। उनकी  प्रियशी की आँखों में जलन  और किसी का दम धुटने लगा।
"आँखें जल रहीं हैं, दम घूट रहा है; कुछ करो "यह किसी प्रतिष्ठित या कहें प्रभावी पशु की आवाज थी।
धुँआ बहुत था अब साँस लेना भी दूभर हो गया।आदेश मिला इसे शहर से बाहर धकेलो। हवा के तेज़  बहाव से धुँए का रुख मोड़ा गया।
धीरे-धीरे जंगल की आग की तरह यह बात फैल गयी कि महामहिम विदेश दौरे पर गये है।
जंगल के काफ़ी पशु-पक्षी शेर की इस वाहियात हरकत से नाराज़ थे परंतु उन जानवरों को खाना पहुँचाया जा रहा था जोकि जंगल जलने की वजह से भोजन को मोहताज थे।
"दादा मैं आम का वृक्ष हूँ और आमों से लदा हूँ,मुझे क्यों जलाया जा रहा।"
आम का वृक्ष अपनी सार्थकता दर्शाते हुए लाचारी से देखता।
"यहाँ किसकी सार्थकता नहीं है सभी अहम हैं अपने आप में फिर भी जल रहे हैं कुछ समय के हाथों कुछ सोच के हाथों कुछ विचारों के अधीन।"
बरगद आम के आसूँ पोंछते हुए कहता है।
"आज इन्हें हमारी क़द्र नहीं है। ये अपना ही भविष्य जला रहे हैं। हमारी सिसकियाँ विनाश को बुलावा हैं। "
कुछ वृक्ष आग की जलन से आपा खो रहे थे। 
जिंदा वृक्षों की देह से निकलती चिंगारी आसमान को छू रही थी। सभी वृक्षों को अब वर्षा का ही सहारा था।
कुछ दिनों बाद बहुत तेज वर्षा हुई। जंगल की आग स्वतः ही बुझ गयी। अब शेर विदेश यात्रा से लौट आया। जंगल के जिव-जंतु उससे बहुत नाराज़ थे। ऐसा भी क्या राजा जो दुःख-तकलीफ़ में अपनी प्रजा का साथ छोड़ गया। किसी ने भी उससे बात नहीं की तब उसने सभा में कोयला उठाया और कहा-
"देखो यह कितना उपयोगी है इससे हमारी बहुत प्रगति होगी। यह वृक्ष ज़िंदा लाख के और जले सवा लाख के।"
शेर का गुरुर अब सातवे आसमान पर था। कुछ ने समर्थन किया तो कुछ वहाँ से चले गये।
समय बीतता गया एक दिन धुँए का वह बवंडर पृथ्वी के चारों तरफ चक्र पूर्ण कर फिर उसी शहर में पहुँच गया।
महामहिम के आदेश पर सभी वृक्षों से आग्रह किया गया कि वह शहर को प्रदूषणरहित करें परंतु अब वृक्ष न के बराबर बचे थे पैसे के लगे ढेर सोने की आभा से चमकती वह सभ्यता धुएँ से अब काली पड़ चुकी थी। 

 ©अनीता सैनी 

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