Thursday, 30 April 2020
Wednesday, 22 April 2020
वह लड़का
रितेश लॉन में आराम-कुर्सी पर बैठे अख़बार के मुखपृष्ठ की सुर्ख़ियों पर नज़र गड़ाए थे।जैकी हरी मुलायम घास पर कुलाँचें भरता हुआ कभी रितेश का ध्यान बँटाने की कोशिश में पाँवों के पास आकर
कूँ-कूँ करने लगता। गुलमोहर की डालियों पर गौरैया-वृन्द का सामूहिक गान, मुंडेर पर कौए की कांव-कांव, घास पर पड़तीं उदय हो चुके भानु की रश्मियाँ, सुदूर अमराइयों से आती मोर, टिटहरी, कोयल की मधुर कर्णप्रिय ध्वनियाँ आदि-आदि मिलकर मनोहारी दृश्य उपस्थित कर रहे थे तभी सर पर पोटली रखे, एक हाथ में गन्ने का गट्ठर व दूसरे हाथ में स्टील की बर्नी लिए गोपाल मुख्य द्वार से ही आवाज़ लगाता हुआ रितेश को प्रणाम करता है।
"मैम साहब कुछ हरी सब्ज़ियाँ भी लाया हूँ। "
गोपाल एक छोटा थैला और अन्य सामान राधिका के हाथ में थमाकर लॉन की सफ़ाई में जुट गया।
"गोपाल भाई बाल-बच्चे सब ठीक हैं?
भाभी जी को मेरी भेजी साड़ी पसंद तो आयी न!"
राधिका ने उत्सुकता से गोपाल को पुकारते हुए उसकी उदारता को भाँपते हुए अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रुप से निर्वहन करने का प्रयास किया। आयेदिन गोपाल भी कभी हरी सब्ज़ियाँ, दूध, घी, दालें, गुड़ आदि गाँव में उपलब्धता और अपनी क्षमता के मुताबिक़ सभी साहब के घर लाने का प्रयास किया करता था ताकि उनकी कृपा उसे मिलती रहे।
"सब ठीक ही है मैम साहब, हमरा बिटवा भी अब अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका है अगर आप साहब से कहकर साहब जी के दफ़्तर में उसे भी काम पर लगवा दो तो मेहरबानी आपकी। "
गोपाल ने गमछे से अपना मुँह पोंछते हुए उम्मीदभरी निगाहों से राधिका से विनम्र अनुरोध किया और अपने काम में जुट गया। राधिका भी बिन कुछ कहे अंदर चली गयी।
सप्ताहभर बाद सही मौक़ा पाकर राधिका ने गोपाल के बेटे को सरकारी नौकरी में लेने का रितेश से आग्रह किया। कुछ दिनों बाद गोपाल के लड़के को रितेश ने अपने सरकारी कार्यालय में डी-वर्ग में अस्थाई नियुक्ति दे दी।
लड़का ठीक-ठाक पढ़ा लिखा था। हल्की-फुलकी अँग्रेज़ी भी जानता था, गणित में अच्छा था। लेन-देन के मामलों में एक दम हाज़िर-जवाबी।
अब धीरे-धीरे रितेश ऑफ़िस के साथ-साथ सुबह-शाम उस लड़के से अपने घर का काम-काज भी करवाने लगा और गोपाल की छुट्टी कर दी गयी। काफ़ी दिनों तक ऐसे ही चलता रहा।
एक दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। वह लड़का अपनी साइकिल बँगले के बाहर ही खड़ी करके आता है। कपड़े बारिश में भीगे हुए थे। कुछ चिंतित-सा जल्दी में था शायद वह।
"अरे इतनी बारिश में ऑफ़िस से इतनी जल्दी आ गये, कुछ देर वहीं ठहर जाते तब तक बारिश रुक जाती। "
रितेश ने दरवाज़ा खोलते हुए कहा।
"साहब! बाबा की तबीयत ख़राब है,
आज घर जल्दी जाना चाहता हूँ। "
लड़के ने दीनता से दाँत दिखाते हुए विनम्रतापूर्वक कहा।
"ठीक है तो फिर ऑफ़िस में ही बड़े बाबू को बोलकर निकल जाते, यहाँ आने की मशक्कत क्यों की?"
रितेश ने उसे फटकारते हुए कहा।
"साहब अब मेरी नौकरी भी स्थाई कर दो, मेरे बाद आए दो लड़कों को आपने स्थाई कर दिया है।पिछले दो वर्ष से आप और मैम साहब को लगातार बोल रहा हूँ।"
लड़के ने आज बारिश के पानी में अपनी लाचारी धोने का पूरा प्रयास किया। आख़िरकार अपनी नौकरी स्थाई करवाने का पूरा भरकस यत्न किया।
"ठीक है...ठीक है...मैं देखता हूँ, अभी तुम घर जाओ।"
वह लड़का गर्दन झुकाए वहाँ से निकल जाता है परंतु आज उसका दर्द बारिश की बूँदों को भी पी रहा था शायद कोई टीस फूट रही थी हृदय में।
"लड़का बहुत मेहनती है और फिर गोपाल भाई भी हमारे वफ़ादार थे, आप इसे स्थाई क्यों नहीं कर देते?
आपकी समझ मुझे नहीं समझ आती।"
राधिका कॉफ़ी का कप रितेश की ओर बढ़ाते हुए कहती है।
"तुम नहीं जानती इन लोगों को, ज़्यादा सर पर बिठाओ तब नाचने लगते है। मैं यह जो इससे दोनों जगह काम में ले रहा हूँ न...मिनटों में बदल जाएगा यही लड़का। आज गिड़गिड़ाकर गया है, यही आँखें दिखाने लगेगा, आज स्थाई होने की माँग कल प्रमोशन की माँग करने लगेगा। आज सर झुकाकर जा रहा है कल यही सर उठाने लगेगा और तो और हमारे घर की बेगार करना भी झटके में छोड़ देगा।
रितेश ने कॉफ़ी ख़त्म की और मोबइल फोन पर निगाह गड़ाते हुए कहा।
राधिका की पलकें एक पल के लिए ठहर गईं रितेश के भावशून्य चेहरे पर। आज रितेश का एक नया रुप जो देख रही थी काष्ठवत होकर।
©अनीता सैनी
Thursday, 16 April 2020
मरुस्थल का मौन संवाद
दूर-दूर तक अपना ही विस्तार देख मरु मानव को भेजता है एक संदेश। वह भी चाहता है तपते बदन पर छाँव। निहारना चाहता है जीव-जंतुओं को। सुबह-सुबह उठना चाहता है सुनकर बैलों-ऊँटों की घंटियों की मधुर ध्वनि।थक गया है धूल से उठते बवंडर देख-देखकर। नम आँखों से फिर वह भी हँसने लगता है, देखता है मानव के कृत्य; तभी दूर से आती आँधी को देखता है और कहता है -
"मरुस्थल का विस्तार तीव्र गति से बढ़ रहा। जिस मानव का मन हरियाली में मुग्ध है उस तक ससम्मान मेरा संदेश पहुँचा दो।"
सर्वाधिक गतिशील अर्द्धचंद्राकार बालू के स्तूप बरखान ने अपनी जगह बदलते हुए कहा-
"बढ़ रहे हैं हम, बढ़ावा इंसान दे रहा है। सब सहूलियत से जो मिल रहा है उसे गँवाने को आतुर लग रहा है। एक पल के जीवन की ख़ातिर बच्चों का भविष्य दाँव पर लगा रहा है, ना-समझ हृदय पर भी विस्तार मरुस्थल का कर रहा है।"
बरखान ने हवा को उसी दिशा में धकेला जिधर से वह आयी थी, ग़ुस्से में हवा ने अपना रुख़ बदला। बालू को आग़ोश में लिया, स्वरुप बवंडर का दिया;अब गर्त को अपना स्वरुप प्राप्त हुआ वह भी सभा में सहभागिता जताता है।
"समझ के वारे-न्यारे पट खुले हैं मानव के। क्या दिखता नहीं कैसे हवा हमें खिसकाती है और जगह बनाती है। रण (टाट ) के लिए और खडींन की मटियारी मिट्टी जिजीविषा के साथ पनपती है वहाँ।"
गर्त अपना रुप प्राप्त करता है, बालू उठने से कुछ तपन महसूस करता है। जलते बदन को सहलाता हुआ अपने विचार रख ही देता है।
"परंतु राह में इंदिरा गाँधी नहर रोड़ा बनेगी,कैसे पार करेंगे उसे? सुना है पेड़-पौधे लगाए जा रहे हैं। बाड़ से बाँधा जा रहा है हमें।"
पवन के समानांतर चलते हुए, बनने वाले अनुदैधर्य स्तूप ने हवा के चले जाने पर अपना मंतव्य रखा।
"हम नहीं करेंगे उस ओर से निमंत्रण स्वयं हमारे पास आएगा। वे आतुर हैं स्वयं को मरुस्थल बनाने के लिए। क्या सुना है कभी बाड़ ने बाड़े को निगला, नहीं न... तो अब देखो।"
अनुप्रस्थ ने समकोण में अपनी आकृति बनाई, चारों तरफ़ निग़ाह दौड़ाई और कहा-
"वह देखो, ऊँटों की टोळी कैसे दौड़ रही है? मरीचिका-सी!
कहीं ठाह मिली इन्हें? नहीं न... इसी के जैसे चरवाहे आसान करेंगे थाह हमारी।
तीनों आपस में खिसियाते हैं,तेज़ धूप को पीते हुए। अब वे तीनों हवा के साथ उठे बवंडर के साथ अपना स्थान बदलते हैं। एकरुपता इतनी की मानव को भी मात दे गए हैं। नम आँखों से आभार व्यक्त करते हैं मानव का जिसने उसे के स्वरुप को ओर विस्तार दिया है।
©अनीता सैनी
Saturday, 11 April 2020
गश्त पर सैनिक
शाम का सन्नाटा जंगल को और भी डरावना बना देता है।छत्तीसगढ़ के सघन वन पार करना किसी मिशन से कम नहीं था उस पर हल्की बूँदा-बाँदी छिपे जीव-जंतुओं को खुला आमंत्रण थी।पेड़ों से लताएँ गुंथीं हुईं थी, रास्ता बनाना बहुत मुश्किल था।तीनों दोस्त बारी-बारी से लताओं पर चाकू चलाते और रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ रहे थे।मंजीत यही कुछ उन्नीस-बीस वर्ष का प्रकृतिप्रेमी स्मार्ट नौजवान था। हरा-भरा जंगल मोह रहा था उसे, प्रकृति का ख़ूबसूरत नज़ारा आँखों में क़ैद करते हुए आगे बढ़ रहा था।
प्रवीण ने समय की नज़ाकत को समझा और तेज़ी से अपने क़दमों को आगे बढ़ाते हुए समय रहते दूरी तय करने का फ़ैसला करता है।उसे लगा अब आदेश देने का वक़्त निकल चुका है।वह अपने दोनों सहयोगियों को अपने पीछे चलने का आदेश देता है। गुमसुम ख्यालों लीन दोनों दोस्तों की चुप्पी पर वार करता हुआ कहता।
"अपनों की याद मन की चारदीवारी में क़ैद हो उनकी रक्षा का दायित्त्व और सुरक्षा का ख़याल धर्म है हमारा।"
प्रवीण ने दोनों कमांडो के विचलित मन में उत्साह का संचार करते हुए कहा।
"कमांडो प्रकाश! तुम्हारे चेहरे पर कुछ बेरुख़ी झलक रही है,घर पर सब कुशल मंगल?"
"जी कमांडो!"
प्रकाश अपने सीनियर का मान रखते हुए चाकू ज़ोर से लताओं-बल्लरियों पर चलाता है और एक लंबी साँस लेता है।
"एक सीनियर नहीं दोस्त पूछ रहा है, सब ठीक है परिवार में? "
प्रवीण की सद्भावना में भी रोष झलक ही जाता है। क़दमों की आहट और तेज़ हो जाती है। शाम के सन्नाटे के साथ पैरों से कुचलतीं सूखी पत्तियों की आवाज़ साफ़ सुनी जा सकती थी।
"पत्नी, बच्चे, परिवार और समाज के क़िस्से बेचैनी बढ़ाते हैं सर! "
प्रकाश ने अपना पक्ष रखा। दर्द भी रुतबे से बाँटना चाहा। नम आँखों का पानी आँखों को ही पिला दिया।
"पत्नी,बच्चे, परिवार और समाज हमारी ज़िंदगी नहीं, हम देश के सिपाही हैं; वो आप से जुड़े हैं और आप देश से। समझना-समझाना कुछ नहीं, विचार यही रखो कि हम चौबीस घंटे के सिपाही हैं और परिवार हमारा एक मिनट!"
प्रवीण ने सीना चौड़ा करते हुए आँखों में आत्मविश्वास को पनाह देते हुए कहा।
एक निगाह जंगल में दौड़ाई और ठंडी साँस खींचते हुए कहा-
"जवानों के प्रेम के क़िस्से नहीं बनते, वे शहादत पाषाण पर लिखवाते हैं; हमें सैनिक होने पर फ़ख़्र है। इसी एहसास को सीने में पाले रखो कमांडो!"
बादलों की गड़गड़ाहट के साथ बूँदा-बाँदी और बढ़ जाती है। तीनों दोस्तों ने एक पेड़ के नीचे ठहरने का निश्चय किया और पैरों पर बँधे ऐंक्लिट में अपने-अपने चाकू रखे। प्रवीण सबसे सीनियर है, उसी को कमांड संभालनी है सो उसे हक नहीं था कुछ कहने का या अपने मन के द्वंद्व को शब्द देने का। वह उस वक़्त संरक्षक की भूमिका में था। वे पीठ पर लदे सामान से कुछ खाने-पीने का सामान निकलते हैं।
प्रकाश एक टहनी से बैठने की जगह साफ़ करता है। सीनियर को सम्मान, जूनियर को स्नेह बस। बैठने का हाथ से इशारा करता है।
"सर मेरे माँ-बाबा मुझपर बहुत गर्व करते हैं। मेरी प्रेमिका जान निसार करती है मुझपर!"
मंजीत प्रकृति के सौंदर्य में डूबा ख़ुशी-ख़ुशी अपना मंतव्य व्यक्त रखता है।
"अभी प्रेमिका है, पत्नी बनने पर देखना कमियों का ख़ज़ाना ढूँढ़ लेगी मोहतरमा!"
प्रकाश मंजीत को छेड़ता हुआ कहता हैं।
"हम दूध का क़र्ज़ चुकाने निकले है। पत्नी और बच्चों के गुनाहगार तो रहते ही हैं उनके सितम को भी सीने से लगाया करो यारो!"
प्रवीण वहीं पेड़ के नीचे लेट जाता है। एक हाथ सर के नीचे और एक हाथ अपने सीने पर रखता है। कहीं अपनी ही दुनिया में गुम हो जाता है। आँखें एकटक पानी की गिरती बूँदों को अपनों के एहसास से जोड़तीं है। यादों के गहरे समंदर में डूब रहा था प्रवीण।
"सर कभी आपको नहीं लगता अगर आप सेना में सम्मिलित नहीं होते तो ज़रुर किसी ऐसी संस्था में होते कि सुबह-शाम अपने परिवार के साथ होते। आप भी समाज का हिस्सा होते। आपने महसूस किया है आम इंसान की सोच को? "
आख़िरकार प्रकाश अपनी व्यथा स्पष्ट कर ही देता है और पीछे खिसकते हुए पेड़ का सहारा लेता है।
"नहीं और देखना भी नहीं चाहता क्योंकि मैं देश का सिपाही हूँ और वे मेरे लोग। वे कितना ही ग़ुरूर पालें परंतु तुम्हारे जितने बहादुर नहीं हैं वे, नहीं कर सकते परिवार का त्याग।"
प्रवीण उठकर बैठ जाता है। अब बारिश भी कुछ कम हो गयी थी। तीनों दोस्त अपनी पीठ पर लादते हैं पिट्ठू और निकलते हैं पाने अपनी मंज़िल उन्हीं लताओं को हटाते हुए।
©अनीता सैनी
Friday, 10 April 2020
वरिष्ठ लेखक डॉ. रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' जी द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार ब्लॉग 'मयंक की डायरी' पर प्रकाशित
वरिष्ठ लेखक आदरणीय रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी जो अनेक पुस्तकों के लेखक हैं, कई ब्लॉग के संचालनकर्ता हैं, साहित्यिक संस्थाओं के संस्थापक हैं, उन्होंने मेरा साक्षात्कार ब्लॉग 'मयंक की डायरी' के लिये लिया है जो आपके समक्ष प्रस्तुत है-