वह लड़का
रितेश लॉन में आराम-कुर्सी पर बैठे अख़बार के मुखपृष्ठ की सुर्ख़ियों पर नज़र गड़ाए थे।जैकी हरी मुलायम घास पर कुलाँचें भरता हुआ कभी रितेश का ध्यान बँटाने की कोशिश में पाँवों के पास आकर
कूँ-कूँ करने लगता। गुलमोहर की डालियों पर गौरैया-वृन्द का सामूहिक गान, मुंडेर पर कौए की कांव-कांव, घास पर पड़तीं उदय हो चुके भानु की रश्मियाँ, सुदूर अमराइयों से आती मोर, टिटहरी, कोयल की मधुर कर्णप्रिय ध्वनियाँ आदि-आदि मिलकर मनोहारी दृश्य उपस्थित कर रहे थे तभी सर पर पोटली रखे, एक हाथ में गन्ने का गट्ठर व दूसरे हाथ में स्टील की बर्नी लिए गोपाल मुख्य द्वार से ही आवाज़ लगाता हुआ रितेश को प्रणाम करता है।
"मैम साहब कुछ हरी सब्ज़ियाँ भी लाया हूँ। "
गोपाल एक छोटा थैला और अन्य सामान राधिका के हाथ में थमाकर लॉन की सफ़ाई में जुट गया।
"गोपाल भाई बाल-बच्चे सब ठीक हैं?
भाभी जी को मेरी भेजी साड़ी पसंद तो आयी न!"
राधिका ने उत्सुकता से गोपाल को पुकारते हुए उसकी उदारता को भाँपते हुए अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रुप से निर्वहन करने का प्रयास किया। आयेदिन गोपाल भी कभी हरी सब्ज़ियाँ, दूध, घी, दालें, गुड़ आदि गाँव में उपलब्धता और अपनी क्षमता के मुताबिक़ सभी साहब के घर लाने का प्रयास किया करता था ताकि उनकी कृपा उसे मिलती रहे।
"सब ठीक ही है मैम साहब, हमरा बिटवा भी अब अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका है अगर आप साहब से कहकर साहब जी के दफ़्तर में उसे भी काम पर लगवा दो तो मेहरबानी आपकी। "
गोपाल ने गमछे से अपना मुँह पोंछते हुए उम्मीदभरी निगाहों से राधिका से विनम्र अनुरोध किया और अपने काम में जुट गया। राधिका भी बिन कुछ कहे अंदर चली गयी।
सप्ताहभर बाद सही मौक़ा पाकर राधिका ने गोपाल के बेटे को सरकारी नौकरी में लेने का रितेश से आग्रह किया। कुछ दिनों बाद गोपाल के लड़के को रितेश ने अपने सरकारी कार्यालय में डी-वर्ग में अस्थाई नियुक्ति दे दी।
लड़का ठीक-ठाक पढ़ा लिखा था। हल्की-फुलकी अँग्रेज़ी भी जानता था, गणित में अच्छा था। लेन-देन के मामलों में एक दम हाज़िर-जवाबी।
अब धीरे-धीरे रितेश ऑफ़िस के साथ-साथ सुबह-शाम उस लड़के से अपने घर का काम-काज भी करवाने लगा और गोपाल की छुट्टी कर दी गयी। काफ़ी दिनों तक ऐसे ही चलता रहा।
एक दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। वह लड़का अपनी साइकिल बँगले के बाहर ही खड़ी करके आता है। कपड़े बारिश में भीगे हुए थे। कुछ चिंतित-सा जल्दी में था शायद वह।
"अरे इतनी बारिश में ऑफ़िस से इतनी जल्दी आ गये, कुछ देर वहीं ठहर जाते तब तक बारिश रुक जाती। "
रितेश ने दरवाज़ा खोलते हुए कहा।
"साहब! बाबा की तबीयत ख़राब है,
आज घर जल्दी जाना चाहता हूँ। "
लड़के ने दीनता से दाँत दिखाते हुए विनम्रतापूर्वक कहा।
"ठीक है तो फिर ऑफ़िस में ही बड़े बाबू को बोलकर निकल जाते, यहाँ आने की मशक्कत क्यों की?"
रितेश ने उसे फटकारते हुए कहा।
"साहब अब मेरी नौकरी भी स्थाई कर दो, मेरे बाद आए दो लड़कों को आपने स्थाई कर दिया है।पिछले दो वर्ष से आप और मैम साहब को लगातार बोल रहा हूँ।"
लड़के ने आज बारिश के पानी में अपनी लाचारी धोने का पूरा प्रयास किया। आख़िरकार अपनी नौकरी स्थाई करवाने का पूरा भरकस यत्न किया।
"ठीक है...ठीक है...मैं देखता हूँ, अभी तुम घर जाओ।"
वह लड़का गर्दन झुकाए वहाँ से निकल जाता है परंतु आज उसका दर्द बारिश की बूँदों को भी पी रहा था शायद कोई टीस फूट रही थी हृदय में।
"लड़का बहुत मेहनती है और फिर गोपाल भाई भी हमारे वफ़ादार थे, आप इसे स्थाई क्यों नहीं कर देते?
आपकी समझ मुझे नहीं समझ आती।"
राधिका कॉफ़ी का कप रितेश की ओर बढ़ाते हुए कहती है।
"तुम नहीं जानती इन लोगों को, ज़्यादा सर पर बिठाओ तब नाचने लगते है। मैं यह जो इससे दोनों जगह काम में ले रहा हूँ न...मिनटों में बदल जाएगा यही लड़का। आज गिड़गिड़ाकर गया है, यही आँखें दिखाने लगेगा, आज स्थाई होने की माँग कल प्रमोशन की माँग करने लगेगा। आज सर झुकाकर जा रहा है कल यही सर उठाने लगेगा और तो और हमारे घर की बेगार करना भी झटके में छोड़ देगा।
रितेश ने कॉफ़ी ख़त्म की और मोबइल फोन पर निगाह गड़ाते हुए कहा।
राधिका की पलकें एक पल के लिए ठहर गईं रितेश के भावशून्य चेहरे पर। आज रितेश का एक नया रुप जो देख रही थी काष्ठवत होकर।
©अनीता सैनी
मार्मिक कथा
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3680 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सादर आभार आदरणीय सर चर्चामंच पर मेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु.
Deleteबहुत मार्मिक रचना प्रिय अनिता | कथित संभ्रांत वर्ग अपनी भव्यता के नीचे इतना अधम मुखौटा भी लगाये रहता है ये सोचना बहुत मुश्किल है | पर वो भूल जाता है ये दिन आने जाने हैं | हिसाब सभी चुकाने हैं |
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया दीदी सुंदर सुन्दर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
दिल को छू देने वाली रचना। नौकरी में अक्सर ऐसा होता है।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर
Deleteअच्छी कहानी !
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर
Deleteइस लघुकथा को पढ़कर एक टीस मन में उभरती कि आदर्श और व्यवहारिक रूप में व्यक्ति कितना अलग-अलग होता है। स्त्री करुणा की जीती-जागती मूर्ति नज़र आती है वहीं पुरुष बड़े सरकारी औहदे पर होते हुए भी जीवन की वास्तविकताओं के साथ अपने स्वार्थ को ही ऊपर रखता है।
ReplyDeleteघरेलू स्त्रियों का भावुक या अति भावुक होना उनका सामाजिक वातावरण से रोज़ाना का सीमित परिचय होता है वहीं कामकाजी पुरुष दिनभर में अनेक परिस्थितियों को जीता है और सामना करता है।
गोपाल और उसके बेटे जैसे किरदार हमारे आसपास ख़ूब मिलते हैं।लघुकथा एक बड़े संदेश के साथ समाज का चेहरा चित्रित करने में सक्षम है।
सादर आभार आदरणीय सर सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
Deleteआशीर्वाद बनाये रखे.
सादर प्रणाम
समाज के धनाढ्य वर्ग के स्वार्थपरता और बेरूखी भरे व्यवहार पर प्रकाश डालती मार्मिक कथा .बहुत सुन्दर और संदेशपरक सृजन.
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया दीदी सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
Deleteसादर स्नेह
भावमय करती रचना
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteस्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
सादर प्रणाम
सब तरह से लायक होते हुए भी गरीब अपनी गरीबी से नहीं उबर पाता इसका एक बड़ा कारण ये भी है...धनाढ्य वर्ग अपने खिदमतगार को उसकी स्थिति से उबारना नहीं चाहता...चाहे वह कितना भी सक्षम हो....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर हृदयस्पर्शी लघुकथा।
सादर आभार आदरणीया दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
Deleteसादर