गश्त पर सैनिक
शाम का सन्नाटा जंगल को और भी डरावना बना देता है।छत्तीसगढ़ के सघन वन पार करना किसी मिशन से कम नहीं था उस पर हल्की बूँदा-बाँदी छिपे जीव-जंतुओं को खुला आमंत्रण थी।पेड़ों से लताएँ गुंथीं हुईं थी, रास्ता बनाना बहुत मुश्किल था।तीनों दोस्त बारी-बारी से लताओं पर चाकू चलाते और रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ रहे थे।मंजीत यही कुछ उन्नीस-बीस वर्ष का प्रकृतिप्रेमी स्मार्ट नौजवान था। हरा-भरा जंगल मोह रहा था उसे, प्रकृति का ख़ूबसूरत नज़ारा आँखों में क़ैद करते हुए आगे बढ़ रहा था।
प्रवीण ने समय की नज़ाकत को समझा और तेज़ी से अपने क़दमों को आगे बढ़ाते हुए समय रहते दूरी तय करने का फ़ैसला करता है।उसे लगा अब आदेश देने का वक़्त निकल चुका है।वह अपने दोनों सहयोगियों को अपने पीछे चलने का आदेश देता है। गुमसुम ख्यालों लीन दोनों दोस्तों की चुप्पी पर वार करता हुआ कहता।
"अपनों की याद मन की चारदीवारी में क़ैद हो उनकी रक्षा का दायित्त्व और सुरक्षा का ख़याल धर्म है हमारा।"
प्रवीण ने दोनों कमांडो के विचलित मन में उत्साह का संचार करते हुए कहा।
"कमांडो प्रकाश! तुम्हारे चेहरे पर कुछ बेरुख़ी झलक रही है,घर पर सब कुशल मंगल?"
"जी कमांडो!"
प्रकाश अपने सीनियर का मान रखते हुए चाकू ज़ोर से लताओं-बल्लरियों पर चलाता है और एक लंबी साँस लेता है।
"एक सीनियर नहीं दोस्त पूछ रहा है, सब ठीक है परिवार में? "
प्रवीण की सद्भावना में भी रोष झलक ही जाता है। क़दमों की आहट और तेज़ हो जाती है। शाम के सन्नाटे के साथ पैरों से कुचलतीं सूखी पत्तियों की आवाज़ साफ़ सुनी जा सकती थी।
"पत्नी, बच्चे, परिवार और समाज के क़िस्से बेचैनी बढ़ाते हैं सर! "
प्रकाश ने अपना पक्ष रखा। दर्द भी रुतबे से बाँटना चाहा। नम आँखों का पानी आँखों को ही पिला दिया।
"पत्नी,बच्चे, परिवार और समाज हमारी ज़िंदगी नहीं, हम देश के सिपाही हैं; वो आप से जुड़े हैं और आप देश से। समझना-समझाना कुछ नहीं, विचार यही रखो कि हम चौबीस घंटे के सिपाही हैं और परिवार हमारा एक मिनट!"
प्रवीण ने सीना चौड़ा करते हुए आँखों में आत्मविश्वास को पनाह देते हुए कहा।
एक निगाह जंगल में दौड़ाई और ठंडी साँस खींचते हुए कहा-
"जवानों के प्रेम के क़िस्से नहीं बनते, वे शहादत पाषाण पर लिखवाते हैं; हमें सैनिक होने पर फ़ख़्र है। इसी एहसास को सीने में पाले रखो कमांडो!"
बादलों की गड़गड़ाहट के साथ बूँदा-बाँदी और बढ़ जाती है। तीनों दोस्तों ने एक पेड़ के नीचे ठहरने का निश्चय किया और पैरों पर बँधे ऐंक्लिट में अपने-अपने चाकू रखे। प्रवीण सबसे सीनियर है, उसी को कमांड संभालनी है सो उसे हक नहीं था कुछ कहने का या अपने मन के द्वंद्व को शब्द देने का। वह उस वक़्त संरक्षक की भूमिका में था। वे पीठ पर लदे सामान से कुछ खाने-पीने का सामान निकलते हैं।
प्रकाश एक टहनी से बैठने की जगह साफ़ करता है। सीनियर को सम्मान, जूनियर को स्नेह बस। बैठने का हाथ से इशारा करता है।
"सर मेरे माँ-बाबा मुझपर बहुत गर्व करते हैं। मेरी प्रेमिका जान निसार करती है मुझपर!"
मंजीत प्रकृति के सौंदर्य में डूबा ख़ुशी-ख़ुशी अपना मंतव्य व्यक्त रखता है।
"अभी प्रेमिका है, पत्नी बनने पर देखना कमियों का ख़ज़ाना ढूँढ़ लेगी मोहतरमा!"
प्रकाश मंजीत को छेड़ता हुआ कहता हैं।
"हम दूध का क़र्ज़ चुकाने निकले है। पत्नी और बच्चों के गुनाहगार तो रहते ही हैं उनके सितम को भी सीने से लगाया करो यारो!"
प्रवीण वहीं पेड़ के नीचे लेट जाता है। एक हाथ सर के नीचे और एक हाथ अपने सीने पर रखता है। कहीं अपनी ही दुनिया में गुम हो जाता है। आँखें एकटक पानी की गिरती बूँदों को अपनों के एहसास से जोड़तीं है। यादों के गहरे समंदर में डूब रहा था प्रवीण।
"सर कभी आपको नहीं लगता अगर आप सेना में सम्मिलित नहीं होते तो ज़रुर किसी ऐसी संस्था में होते कि सुबह-शाम अपने परिवार के साथ होते। आप भी समाज का हिस्सा होते। आपने महसूस किया है आम इंसान की सोच को? "
आख़िरकार प्रकाश अपनी व्यथा स्पष्ट कर ही देता है और पीछे खिसकते हुए पेड़ का सहारा लेता है।
"नहीं और देखना भी नहीं चाहता क्योंकि मैं देश का सिपाही हूँ और वे मेरे लोग। वे कितना ही ग़ुरूर पालें परंतु तुम्हारे जितने बहादुर नहीं हैं वे, नहीं कर सकते परिवार का त्याग।"
प्रवीण उठकर बैठ जाता है। अब बारिश भी कुछ कम हो गयी थी। तीनों दोस्त अपनी पीठ पर लादते हैं पिट्ठू और निकलते हैं पाने अपनी मंज़िल उन्हीं लताओं को हटाते हुए।
©अनीता सैनी
प्रिय अनु तुम्हारी लिखी यह लघुकथा हम तीसरी बार पढ़ रहे हैं। शब्द नहीं सूझ रहे क्या प्रतिक्रिया लिखें इस पर मन भावुक हो जा रहा हर बार। एक सैनिक के मन की व्यथा उसके मनोभावों का सजीव चित्रण किया है तुमने।
ReplyDeleteमन से वीर सपूतों को और उनके ज़ज़्बे को
प्रणाम करते हैं। इन सैनिकों के परिवार के सदस्य भी उतनी ही श्रद्धा के पात्र है क्योंकि सामूहिक त्याग ही कर्तव्य पथ पर दृढ होकर चलने को प्रेरित करती है।
इतने सारगर्भित सार्थक हृदयस्पर्शी लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार करो मेरी।
सादर आभार प्रिय श्वेता दीदी शब्द नहीं हैं मेरे पास कि कैसे आपका आभार व्यक्त करूँ. लघुकथा पर आपकी सराहना पाकर मन बहुत ख़ुश हुआ. यह लघुकथा सैनिक जीवन की वास्तविक घटना पर आधारित है. दर्द को छिपाना और प्यार बाँटना सैनिक जीवन का अलंकरण हैं. मेरी यह लघुकथा सैनिकों को समर्पित है.
Deleteआपके स्नेह और समर्थन की सदैव आकाँक्षी हूँ.
अनीता मैं ईश्वर का बहुत आभारी हूँ की आप मुझे जीवन साथी के रूप मे मिले | आप ही ने मुझे हिमत दी हौसला दिया, आप का त्याग तो मुझसे भी बड़ा है |
ReplyDeleteलघुकथा पर आपकी मर्मस्पर्शी टिप्पणी पाकर मन बहुत प्रफुल्लित हुआ. आपकी दी हुई जीवनोपयोगी सीख सदैव मुझे धैर्यवान बनाते हुए साहस से भरती है.
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में रविवार 12 अप्रैल 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर पाँच लिंकों पर मेरी रचना को स्थान देने के लिए.
Deleteसादर
मार्मिक आलेख।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर
Deleteबेहद मर्मस्पर्शी सृजन 👌👌
ReplyDeleteसादर आभार बहना
Delete"नहीं और देखना भी नहीं चाहता क्योंकि मैं देश का सिपाही हूँ और वे मेरे लोग। वे कितना ही ग़ुरूर पालें परंतु तुम्हारे जितने बहादुर नहीं हैं वे, नहीं कर सकते परिवार का त्याग।"
ReplyDeleteसच ,हर एक की बस की बात नहीं हैं ये त्याग ये समर्पण का भाव विरले को ही मिलती हैं ,हृदयस्पर्शी दास्तान अनीता जी ,हर एक सैनिक की मनोदशा का सुंदर चित्रण,सादर स्नेह
सादर आभार आदरणीय दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर
Deleteहृदय स्पर्शी कथा ।
ReplyDeleteसैनिकों के मनोभावों को बहुत सुंदरता से उकेरा है प्रिय अनिता आपने।
सचमुच सैनिक की धुरी बस देश रक्षा पर घुमती रहती है।
और सभी गौण हो जाते हैं।
शानदार सृजन।
सादर आभार आदरणीया दीदी आपकी समीक्षा हमेशा हृदय को संबल प्रदान करती है. आपका स्नेह आशीर्वाद बना रहे.
Deleteसादर
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (13-04-2020) को 'नभ डेरा कोजागर का' (चर्चा अंक 3670) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
सादर आभार आदरणीय सर चर्चा मंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
Deleteसादर
बहुत ही लाजवाब लघुकथा अनीता जी।
ReplyDeleteसैनिकों के कर्म के साथ उनका परिचय और परिचय के साथ ही मनोभाव....।तीनों कमांडोज का साथ रहते हुए भी पदस्थ अन्तर...वाह!!!!
सैनिक के मनोभावों को आप से बेहतर कौन समझ सकता है।
बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब लघुकथा।
सादर आभार आदरणीया दीदी सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
Deleteस्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
सादर
निःशब्द कर दिया आपने ... बहुत ही उम्दा सृजन आपका 👌👌
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteस्नेह आशीर्वाद बना रहे.