मरुस्थल का मौन संवाद
दूर-दूर तक अपना ही विस्तार देख मरु मानव को भेजता है एक संदेश। वह भी चाहता है तपते बदन पर छाँव। निहारना चाहता है जीव-जंतुओं को। सुबह-सुबह उठना चाहता है सुनकर बैलों-ऊँटों की घंटियों की मधुर ध्वनि।थक गया है धूल से उठते बवंडर देख-देखकर। नम आँखों से फिर वह भी हँसने लगता है, देखता है मानव के कृत्य; तभी दूर से आती आँधी को देखता है और कहता है -
"मरुस्थल का विस्तार तीव्र गति से बढ़ रहा। जिस मानव का मन हरियाली में मुग्ध है उस तक ससम्मान मेरा संदेश पहुँचा दो।"
सर्वाधिक गतिशील अर्द्धचंद्राकार बालू के स्तूप बरखान ने अपनी जगह बदलते हुए कहा-
"बढ़ रहे हैं हम, बढ़ावा इंसान दे रहा है। सब सहूलियत से जो मिल रहा है उसे गँवाने को आतुर लग रहा है। एक पल के जीवन की ख़ातिर बच्चों का भविष्य दाँव पर लगा रहा है, ना-समझ हृदय पर भी विस्तार मरुस्थल का कर रहा है।"
बरखान ने हवा को उसी दिशा में धकेला जिधर से वह आयी थी, ग़ुस्से में हवा ने अपना रुख़ बदला। बालू को आग़ोश में लिया, स्वरुप बवंडर का दिया;अब गर्त को अपना स्वरुप प्राप्त हुआ वह भी सभा में सहभागिता जताता है।
"समझ के वारे-न्यारे पट खुले हैं मानव के। क्या दिखता नहीं कैसे हवा हमें खिसकाती है और जगह बनाती है। रण (टाट ) के लिए और खडींन की मटियारी मिट्टी जिजीविषा के साथ पनपती है वहाँ।"
गर्त अपना रुप प्राप्त करता है, बालू उठने से कुछ तपन महसूस करता है। जलते बदन को सहलाता हुआ अपने विचार रख ही देता है।
"परंतु राह में इंदिरा गाँधी नहर रोड़ा बनेगी,कैसे पार करेंगे उसे? सुना है पेड़-पौधे लगाए जा रहे हैं। बाड़ से बाँधा जा रहा है हमें।"
पवन के समानांतर चलते हुए, बनने वाले अनुदैधर्य स्तूप ने हवा के चले जाने पर अपना मंतव्य रखा।
"हम नहीं करेंगे उस ओर से निमंत्रण स्वयं हमारे पास आएगा। वे आतुर हैं स्वयं को मरुस्थल बनाने के लिए। क्या सुना है कभी बाड़ ने बाड़े को निगला, नहीं न... तो अब देखो।"
अनुप्रस्थ ने समकोण में अपनी आकृति बनाई, चारों तरफ़ निग़ाह दौड़ाई और कहा-
"वह देखो, ऊँटों की टोळी कैसे दौड़ रही है? मरीचिका-सी!
कहीं ठाह मिली इन्हें? नहीं न... इसी के जैसे चरवाहे आसान करेंगे थाह हमारी।
तीनों आपस में खिसियाते हैं,तेज़ धूप को पीते हुए। अब वे तीनों हवा के साथ उठे बवंडर के साथ अपना स्थान बदलते हैं। एकरुपता इतनी की मानव को भी मात दे गए हैं। नम आँखों से आभार व्यक्त करते हैं मानव का जिसने उसे के स्वरुप को ओर विस्तार दिया है।
©अनीता सैनी
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सादर आभार प्रिय श्वेता दीदी पाँच लिंकों के आनंद पर मेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु.
Deleteसादर
सार्थक प्रस्तुति !
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
"बढ़ रहे हैं हम, बढ़ावा इंसान दे रहा है। सब सहूलियत से जो मिल रहा है उसे गँवाने को आतुर लग रहा है। एक पल के जीवन की ख़ातिर बच्चों का भविष्य दाँव पर लगा रहा है, ना-समझ हृदय पर भी विस्तार मरुस्थल का कर रहा है।"
ReplyDeleteसार्थक और तार्किक सृजन अनीता जी
सादर आभार आदरणीया कामिनी दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
रण (टाट ) के लिए और खडींन की मटियारी मिट्टी जिजीविषा के साथ पनपती है वहाँ।"
ReplyDeleteवाह!!!
अद्भुत!!!बहुत सुन्दर सार्थक एवं लाजवाब सृजन।
सादर आभार आदरणीया दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
मरुस्थल के विस्तार के लिए मनुष्य का प्रकृति के प्रति आक्रामक संवेदनहीन रबैया ज़िम्मेदार है। लघुकथा कहीं-कहीं गद्य कविता-सी हो जाती है जब बिंबात्मकता उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए रसमय हो जाती है। स्थानीय शब्दावली और मरुस्थल संबंधी विशिष्ट शब्द कथा की रोचकता तो बनते हैं किंतु पाठक को अर्थों के फेर में उलझा देते हैं।
ReplyDeleteसंलग्न चित्र लघुकथा के मर्म को समझाने में सहायक है।
सादर आभार आदरणीय सर सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
Deleteबहुत बहुत आभार मनोबल बढ़ाने हेतु.
सादर
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19 -4 -2020 ) को शब्द-सृजन-१७ " मरुस्थल " (चर्चा अंक-3676) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सादर आभार आदरणीय कामिनी दीदी चर्चामंच पर मेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु.
Deleteसादर
बहुत खूब शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया कुसुम दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु
Deleteसादर