Sunday, 17 May 2020
तुम्हारी फुलिया
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तुम्हारी फुलिया,
लघुकथा
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
Tuesday, 5 May 2020
वृंदा
रात के अंतिम पहर में धुँधले पड़ते तारों में वृंदा ने अपनों को तलाशना चाहा। एक आवाज़ ने उसे विचलित किया।
"हक नहीं तुम्हें कुछ भी बोलने का। ज्ञान के भंडारणकर्ता हैं न,समझ उड़ेलने को। तुम क्यों आपे से बाहर हो रही हो। तुम्हें बोलने की आवश्यकता नहीं है।"
बुद्धि ने वृंदा को समझाया और बड़े स्नेह से दुलारा।
"क्यों न बोलें हम,तानाशाही क्यों सहें?"
मन ने हड़बड़ाते हुए कहा।
" समझ पर लीपा-पोतीकर ने से तुम्हें सुकून की अनुभूति होगी।"
बुद्धि ने अपनी गहराई से कुछ बीनते हुए कहा।
"बाक़ी लोगों का क्या वे गणना का हिस्सा नहीं है? यह सही समय था। तीनों सेनाओं को उलझाने का?"
गला रुँध गया मन की आँखें नम हो गई।
"वे सकारात्मकता दर्शाना चाहते थे।"
बुद्धि ने मन को हिम्मत बँधाई।
मन एक कोने में बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा जैसे उसने किसी अपने को खोया हो।
"किससे अनुमति से सभा बुलाकर मातम मना रहे हो?"
अंदर से आवाज़ ने आवाज़ दी मन और बुद्धि दोनों सहम गए।
"ये वाकचातुर्य नासमझी को समझदारी का लिबास पहना रहे हैं।"
मन ने धीमे स्वर में अपना मंतव्य रखा।
"क्या करोगे तुम? "
"ज़्यादा ज्ञान मत बघारो।"
आवाज़ ने आक्रोशित स्वर में उसांस के साथ कहा।
"माफ़ी-माईबाप!”
बुद्धि ने मन की तरफ़ से आवाज़ से माफ़ी माँगी कभी आवाज़ न उठाने के वादे के साथ।
वृंदा की आँखें नम हो गई, उसने देखा!
और पाँच तारे आसमान में लुप्त हो गए।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
Monday, 4 May 2020
अनपढ़ औरतें
आज सुबह से ही मौसम बिगड़ रहा था। गीता गांव के हाल-चाल फोन पर ले रही कि मौसम की मार से पहले खलिहान में पड़ा अनाज घर तक सुरक्षित पहुँचा या नहीं।
पुनीत अख़बार पढ़ रहा था, सासु माँ अंदर रुम में आराम कर रही थी।
"वह अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए पत्थर उबाल रही थी।"
पुनीत ने विस्फारित नेत्रों से मम्मी से कहा और फिर दूसरा समाचार पढ़ने लगा।
"अनपढ़ होगी!"
गीता की सास ने कमरे के अंदर से आवाज़ दी।
"मॉम कहती है माँ कभी अनपढ़ नहीं होती।"
पुनीत ने माँ शब्द को फ़ील करते हुए गीता का समर्थन किया।
" कीनिया की एक महिला जिसके आठ बच्चे थे वह विधवा थी। लोगों के कपड़े धोकर अपने बच्चों का पेट भरती थी। हाल ही में कोरोना की वजह से काम पर नहीं जा सकती थी। खाने को घर पर कुछ नहीं था, बच्चों को बहलाने के लिए वह पत्थर उबालने लगी। बच्चों को कुछ संतोष होगा जिसके इंतज़ार में वे सो जाएँगे।"
पुनीत ने अपनी बाल-बुद्धि से यह विचार विचलित मन से अपनी दादी माँ को सुनाया।
"और पता है, उसकी पड़ोसन ने उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया जिससे कि काफ़ी लोगों ने उनकी मदद भी की।"
पुनीत अपनी दादी माँ को बार-बार समझा रहा था।
"मॉम आप क्या कहते हो?"
पुनीत ने फिर प्रश्न किया।
"उसकी पीड़ा को पिरो सकूँ वे शब्द कहाँ से लाऊँ? "
गीता ने पुनीत को दूध का गिलास थमाते हुए कहा।
"ये अनपढ़ औरतें भी न कभी पत्थर तो कभी नमक से पेट भर देती हैं अपने बच्चों का।"
गीता की सास पास ही सोफ़े पर बैठते हुए, ऐसी ही एक घटना से इस घटना को जोड़कर समझाती हुई कहती है।
"पता है मुझे कोई अनपढ़ ही होगी।"
©अनीता सैनी
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मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
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सीक्रेट फ़ाइल
प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'लघुकथा डॉट कॉम' में मेरी लघुकथा 'सीक्रेट फ़ाइल' प्रकाशित हुई है। पत्रिका के संपादक-मंड...