"बड़ी बहू हल्दी का थाल कहाँ है ?"
सुमित्रा चाची ने चिल्लाते हुए कहा।
हल्दी के रंग में डूबी साड़ी के पल्लू को ठीक करते हुए एक नज़र अपने गहनों पर डालते हुए कहा-
"ओह ! मति मारी गई मेरी, यहीं तो रखा है आँखों के सामने।"
पैर की अँगुलियों में अटके बिछुए से साड़ी को खींचते हुए क़दम तेज़ी से बढ़ाएँ ।
"सुमित्रा! बेटी का ब्याह है। बहू घर नहीं आ रही, यों आपा मत खो।"
बूढ़ी दादी पोती के ब्याह में ऐंठी हुई बैठी थी कि कोई उससे कुछ क्यों नहीं पूछता। दादी ने ऐंठन खोलते हुए मुँह बनाया। परंतु सुमित्रा चाची अनसुना करते हुए वहाँ से निकल गई।
" दीदे फाड़-फाड़कर देखती ही रहोगी ? वहाँ चौखट पर कौन बैठेगा। सूबेदारनी अंदर ही घुसती आ रही है। विधवा की छाँव शुभ कार्य में शोभा देती है ?"
सुमित्रा चाची दादी पर एकदम झुँझलाई।
"सुमित्रा... !"
गोमती भाभी की ज़बान लड़खड़ा गई।
न वह, अंदर आई और न ही अपने क़दम पीछे खींच पाई। अपमान के ज़हर का घूँट वहीं खड़े-खड़े ही पी गई। क्षण भर अपने आपको संभालते हुए कहा-
" बड़ी बहू वो शगुन लाना भूल गई। आती हूँ कुछ देर में...।"
दर्दभरी मुस्कान और एक अनुत्तरित प्रश्न के साथ चौखट से लौट गई।
©अनीता सैनी 'दीप्ति'