"माँ को बेटियों के पारिवारिक मामलों में ज़्यादा दख़ल नहीं देनी चाहिए।
बेटियाँ जितनी जल्दी मायके का मोह छोड़ती हैं उनकी गृहस्थी उतनी जल्दी फलती-फूलती है।"
माँ आज भी इन्हीं विचारों की गाँठ पल्लू से लगाए बैठी है। बहुत कुछ है जो उससे कहना है, पूछना है परंतु वह कभी नहीं पूछती, न ही कुछ कहती है।
समझदारी का लिबास ओढ़े टूटे-फूटे शब्दों को जोड़ती हुई फोन पर कहती है-
"सालभर से ज़्यादा का समय हो गया गाँव आए हुए, देख लेना, गाँव का घर भी सँभाल जाना और एक-दो दिन मेरे पास भी रुक जाना, मन बहल जाएगा।"
मन होता है पूछूँ मेरा या तुम्हारा।
जब भी मन भारी होता है माँ का तब बेपरवाही दर्शाती हुई कहती है-
"गला भारी हो गया, ज़ुकाम है; नींबू की चाय बनाऊँगी।"
और फोन काट देती है।
सप्ताह में एक-दो बार उसे ज़ुकाम होता है। कभी-कभी मुझे भी होता है। पूछती नहीं है माँ, बताती है।
" नींबू की चाय बनाकर पी ले।"
मैं उससे भी ज़्यादा समझदारी दिखाती हूँ।
"नेटवर्क नहीं है"...कहकर फोन काटती हूँ...।”
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 08 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय दी सांध्य दैनिक पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-12-2020) को "पेड़ जड़ से हिला दिया तुमने" (चर्चा अंक- 3910) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सादर आभार आदरणीय सर चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
दखल किसी का कहीं भी ठीक नहीं सामञ्जस्य सही है।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर सृजन सार्थक हुआ।
Deleteसंतुलित सामंजस्य हो तो सब सही....सुंदर रचना
ReplyDeleteदिल से आभार
Deleteसही कहा-
संतुलित सामंजस्य हो तो सब सही।
सृजन सार्थक हुआ।
जीवन में संतुलन, सामंजस्य और व्यवहार कुशलता से मानव का आत्मविश्वास संवरता है जिससे वह अपने जीवन को सफलतापूर्वक जीता है । ये गुण कई बार हमें अनुभवों से तो कई बार विरासत में मिलते हैं। बहुत सुन्दर संदेश देती गंभीर विषय पर सशक्त लघुकथा ।
ReplyDeleteदिल से आभार आदरणीय मीना दी।
Deleteसारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु। आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
सादर
हमेशा की तरह अर्थपूर्ण आलेख, आपने सही कहा, किसी भी रिश्ते में ज़रूरत से ज़्यादा दख़ल देना रिश्तों में दरार डाल जाता है, लेकिन सम्प्रति समाज को देखते हुए, कुछ हद तक पुत्रियों को अपनी मां से मानसिक व नैतिक सहयोग की भी ज़रूरत होती है अतः सामंजस्य का सेतु बनाये रखना भी आवश्यक है - - नमन सह।
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया सर सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteआशीर्वाद बनाए रखे।
सादर
वाह!प्रिय अनीता ,बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteदिल से आभार प्रिय शुभा दी।आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसप्ताह में एक-दो बार उसे ज़ुकाम होता है। कभी-कभी मुझे भी होता है। पूछती नहीं है माँ, बताती है।
ReplyDelete" नींबू की चाय बनाकर पी ले।"
मैं उससे भी ज़्यादा समझदारी दिखाती हूँ।
ओह!!!
अक्सर एक दूसरे की याद में सुबकने को जुकाम का बहाना बना कर दिल की दिल में दबाकर समझदारी का लिबास ओढ़े माँ बेटी खींचती रहती हैं अपनी अपनी गृहस्थी की गाड़ियां.....
सामजस्य ही तो है ये भी...अनकहा सामजस्य... बेटी नहीं बोलती पर माँ जानती है उलझने उसके जीवन की ...।आखिर उन्हीं राहों से तो गुजरती आयी है अभी तक...और सुझाती भी हैं निकलना उलझनों से सांकेतिक शब्दों में...नींबू वाली चाय की तरह।
बहुत ही लाजवाब भावपूर्ण हृदयस्पर्शी सृजन।
निशब्द हूँ दी आपकी प्रतिक्रिया से।
Deleteप्रेम सभी हदें तोड़ देता है प्रेम में दायरा के आकलन करना कहा संभव है। दिल की गहराइयों से बहुत बहुत आभार।
सादर
ज़िंदगी में उलझनों से निकलने की सीख देती हुयी बहुत ही लाजवाब भावपूर्ण मार्मिक रचना लिखी है दीदी आपने ......
ReplyDeleteदिल से आभार बहना प्रतिक्रिया हेतु।तुम्हारे लिए भी है।शिकायत मत करना कि मैंने हाथ छोड़ा। स्नेह आशीर्वाद.
Deleteख़ुश रहो।
बेहद हृदयस्पर्शी
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया दी।
Deleteमन भारी हो गया ,लाजवाब
ReplyDeleteदिल से आभार दी।
Deleteअत्यंत हर्ष हुआ आपकी प्रतिक्रिया मिली।
मां-बेटी के बीच ये मौन- संवाद ही तो वो शक्ति थी जिससे पिछली पीढ़ी की बेटियां अपना घर-बार सहजता से संवार लेती थी,आज इसी शक्ति को तो मां बेटी दोनों ही खो चुकी हैं और घर बस कम रहें है,उजड़ते ज्यादा है , बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति प्रिय अनीता जी
ReplyDeleteदिल से आभार आदरणीय कामिनी दीदी सुंदर सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु। सही कहा आपने समय बहुत बदल गया है।
Deleteसादर
हृदयस्पर्शी लघु-कथा।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया अनुज।
Deleteअद्भुत!!
ReplyDeleteवैसे तो माँ की सीख सुगणी है सत्य सटीक ,पर इस सीख के पिंजरे में कैद दोनों ही तड़पते हैं, बेबस से ,जगत की नीतियों को निभाते हुए भी जो स्नेह का एक अटूट नाता है वो कहाँ टूट पाता है, बस महसूस करती रहती है बेटियाँ और माँ एक लक्षमण रेखा में घिरी सी ,सावन सिर्फ अंदर बरस कर रह जाता है पर बादलों की मेघमाला कौन छुपा पाता है भला क्या कृत्रिम रौशनी?? बस नींबू की चाय और जुकाम के बहाने जैसी, स्वर की आर्द्रता कभी छुपाये छुपती है बल्कि ज्यादा चोट करती है ।।
निशब्द ! हूं आपकी अनुभूति से।
आपकी प्रतिक्रिया सृजन को और निख़ार देती है।लघुकथा का मर्म स्पष्ट करती सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु दिल से आभार प्रिय दी।स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसादर
पीढ़ी दर पीढ़ी बेटियाँ अनुकरण कर रही हैं
ReplyDeleteकैसे बदलाव हो कौन शुरुआत करे
शादी के पन्द्रह दिन, महीने दिन, तीन महीने, छ महीने साल भर के अंदर जला दी जा रही, पंखे से लटका दी जा रही, जहर देकर मार दी जा रही
साहित्य के म्लान दर्पण से नयी पीढ़ी क्या पढ़े...
आभारी हूँ दी आपकी प्रतिक्रिया मिली।
Deleteस्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
सादर