”बड़ी बहू कहे ज़िंदगीभर कमाया, किया क्या है? एक साइकिल तक नई नहीं ख़रीदी।”
बग़लवाली चारपाई पर ठुड्डी से हाथ लगाए बैठी परमेश्वरी अपने पति से कहती है।
”जब हाथ-पैर सही-सलामत तब गाड़ी-घोड़ा कौ के करणों।”
निवाला मुँह में लेते समय हाथ कुछ ठनक-सा गया, हज़ारी भाँप गए कि बहू दरवाज़े के पीछे खड़ी है और समझ गए अगले महीने होने वाले रिटायरमेन्ट पर उठनेवाले बवाल की लहरें हैं।
”मुझे तो समझ न थी, आप तो कुछ करके दिखाता बेटे-बहूआँ णा; जिणो हराम कर राखौ है। कहती है- के करौ जीवनभर की कमाई को; आँधा पीसो कुत्ता खायो।”
परमेश्वरी पति की थाली में एक और रोटी रखती है, छाछ का गिलास हाथ में थमाते हुए कहती है।
”घर आने से पहले इतनी हाय-तौबा, सोचता हूँ बाक़ी जीवन बसर कैसे होगा? पंद्रह जनों का पालन-पोषण कर रहा हूँ और क्या चाहिए?”
खाना अधूरा छोड़ हजारी थाली छोड़ उठ जातें हैं। हाथ धोकर तौलिए से हाथ पोंछते हुए अपनी चप्पलें चारपाई के नीचे से पैरों से खिसकाते हुए कहते हैं।
”अपने घर के पेड़ न सींचता! भाई-बहन को करो, कौन याद रखे। परिवार के लिए बैंक में तो फूटी कौड़ी नहीं है, मैं नहीं बहू कहे।”
परमेश्वरी थाली स्टूल से उठाती हुई कहती है।
हज़ारी एक टक अपनी पत्नी की ओर देखते हैं, देखते हैं उसकी घबराई आँखों को; भोलेपन में डूबी बुढ़ापे की परवाह और बेटे-बहू की समझदारी के तैरते अनेक बैंक-बैलेंस के प्रश्नों को।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 05-02-2021) को
"समय भूमिका लिखता है ख़ुद," (चर्चा अंक- 3968) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
सादर आभार आदरणीय मीना दी लघुकथा को मंच प्रदान करने हेतु।
Deleteसुन्दर लघुकथा।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर।
Deleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर।
Deleteसादर
बहुत सुंदर लघुकथा
ReplyDeleteसादर आभार सखी।
Deleteभाषा का प्रवाह एवं प्रभाव अति सुन्दर बन पड़ा है । जिस संवेदनशीलता को उकेरा गया है वो परिलक्षित हो रहा है ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय दी कल्पना में यथार्थ का चित्रण साकार हुआ।
Deleteसादर
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteसादर आभार अनुज।
Delete"हज़ारी एक टक अपनी पत्नी की ओर देखते हैं, देखते हैं उसकी घबराई आँखों को; भोलेपन में डूबी बुढ़ापे की परवाह और बेटे-बहू की समझदारी के तैरते अनेक बैंक-बैलेंस के प्रश्नों को।"
ReplyDeleteजीवन का एक सत्य ये भी है,सारा जीवन सबका भरण-पोषण करने के बाद जीवन के आखिरी समय में हाथ रीते ही रहते हैं। लोक-भाषा में एक सत्य को वया करती सुंदर लघु कथा प्रिय अनीता
सही कहा आदरणीय दी आज के समय में घर-घर की घटना है यह।
Deleteमुखौटे पर मुखौटे बदलता इंसान पहचान भूल गया।
सादर
सुंदर लघु कथा
ReplyDeleteसादर आभार सर यों ही बातों बातों में ये प्रसंग सूझ गया।
Deleteसादर
अच्छी लघुकथा। सबके लिए कितना भी कर लो, यही कहेंगे कि क्या किया उम्र भर ? इसी वजह से अब लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं।
ReplyDeleteसही कहा मीना दी।
Deleteसिमटता सामाजिक दायरा एक व्यक्ति तक सिमित हो गया हैं ।समय के साथ सामाजिक इकाई प्रति व्यक्ति हो गई है।
दिल से आभार दी।
सादर