दर्पण /अनीता सैनी 'दीप्ति'
”टहलने निकली हो बहना?”
प्रगति के लड़खड़ाते क़दम देख मंदी ने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा। मंदी के दौर में प्रगति का टहलना उसे फूटी आँख न सुहाया। प्रगति सूखी नदी के समान थी उस नदी को निचोड़ने पर काया पर पड़े निशाना मंदी थी।
”नहीं! गलियों में प्रगति की महक फैलाने निकली हूँ।” प्रगति का तंज़ भरा स्वर हवा में गूँजा।
तंज़ से अनभिज्ञ मंदी ने चश्मा नाक पर सटाया। होंठों पर आई पपड़ी पर जीभ घुमाई और देखा! सूरज,चाँद,तारे और पृथ्वी सब एक जगह ठहरे हैं बस चल रही थी तो मंदी।
”नित नई नीतियों ने निबाला छीन लिया! मरे को मारने की ठानी है?” बैंच के पास ही दाना चुगने आए बेरोज़गार कबूतरों की गुटर-गूँ मंदी के कानों से टकराई।
”हाय! जहाँ देखो वहीं मेरे ही चर्चे!! कमर ही तो तोड़ी है; मार थोड़ी डाला।” स्वयं के चर्चे पर मुग्ध हुई मंदी अपनी बलाएँ लेने लगी। बैंच के इस कोने से उस कॉर्नर तक खिसकते हुए एक हाथ से छड़ी दूसरे में अख़बार उठाया।
लॉक डाऊन के दौरान भारी मंदी की मार। साथ ही बिलायती बबूल की पूँजी छत्तीस प्रतिशत बढ़ी।मुख-पृष्ठ की पंक्तियाँ देख मंदी बिफर उठी।
"भाई! ज़माना तो देखो! कैसा आया है?कमर तोड़ी मैंने सुर्ख़ियाँ बटोरे कोई और…कलयुग है। घोर कलयुग।" कहते हुए मंदी वहीं पसर गई।