”ग्वार की भुज्जी हो या सांगरी की सब्ज़ी, गाँव में भोज अधूरा ही लगता है इनके बिन।”
महावीर काका चेहरे की उदासी को शब्दों से ढकने का प्रयास करते हैं और अपने द्वारा लाई सब्ज़ियों की बड़बड़ाते हुए सराहना करने लगते हैं।
”क्यों नहीं आज फिर यही बनाती हूँ, बिटिया रानी को भी ग्वार बहुत पसंद है।”
गाँव से आई सप्ताहभर की सब्ज़ियों को संगीता फ़्रिज में व्यवस्थित करते हुई कहती है।
” नहीं! नहीं!! यह मेरी चॉइस नहीं है नानू, मेरे दाँतों में चुभता है ग्वार,मम्मी बनाती है फिर बार-बार रिपीट करती है, तुम्हारी चॉइस का खाना बनाया है आज।”
बिटिया रानी ऐसे चिल्लाई जैसे बहुत दिनों से मानसिक तनाव सह रही हो और आज नानू का स्पोर्ट पाते ही फूट पड़ी हो।
”आजकल के बच्चे देशी सब्ज़ियों कहाँ पसंद करते हैं?”
काका का भारी मन शब्दों का वज़न नहीं उठा पाया। बेचैनियाँ आँखों से झरती नज़र आईं।
”ऐसा नहीं है। बिटिया को ग्वार बहुत पसंद है और फिर इतनी सारी खेत की सब्ज़ियों रोज़-रोज़ मार्किट जाने का झंझट ही ख़त्म।”
कहते हुए संगीता पास ही सोफ़े पर बैठ जाती है।
शब्दों को जोड़-तोड़कर जैसे-तैसे तारीफ़ों के पुल बाँधने का प्रयास करती है कि कहीं बिटिया की हाज़िर-जवाबी से महावीर काका खिन्न न हो जाएँ।
”वैसे इस बार अनाज की पैदावार ठीक ही हुई होगी? "
संगीता बातों का बहाव बदलने का प्रयास करती है।
” कहाँ बिटिया! इस बार तो भादों की बरसात बीस एकड़ में खड़ी चौलाई की फ़सल लील गईं। बची हुई कड़बी काली पड़ गई।”
खेतों में हुए नुकसान को वो बार-बार दोहराते हैं। शहर में बिटिया को परीक्षा दिलाने आए तो है परंतु दिल वहीं गाँव में ही छोड़ आए। पगड़ी के लटकते छोर से आँखें मलते हुए कहते हैं।
"नानू मुझे पसंद है ग्वार।”
बिटिया दौड़कर पास ही रखा टिसु स्टैंड लाती है। उसे लगता है जैसे उसके कहने से इन्हें पीड़ा पहुँची हो।
” आप भी मुआवज़े की माँग किया करो।”
संगीता अपनी समझदारी का तीर तरकस से निकालते हुए कहती है।
”बिटिया रानी के इन काग़ज़ों (टिसु पेपर ) की तरह होती है मुआवज़े की रकम। 'नाम बड़े दर्शन छोटे' किसान के ज़ख़्मों का उपचार नहीं करता कोई, दिलासा बाँटते हैं।
महावीर काका थकान में डूबी आँखों को पोंछते हुए कहते हैं।
एक लंबी ख़ामोशी संवाद निगल जाती है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
परिस्थितियों से जूझते मन की व्यथा का हृदयस्पर्शी शब्द चित्र उकेरती सुन्दर लघुकथा ।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय मीना दी जी।
Deleteसादर
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 15 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय यशोदा दी जी।
Deleteसादर
कभी मौसम,कभी व्यवस्था तो कभी कुछ और ... एक किसान का दर्द संवेदनशील मासूम बच्ची भी कम करने का
ReplyDeleteप्रयास कर रही और हम... यह प्रश्न तो स्वयं से पूछना ही चाहिए। अन्नदाता अपनी जरूरतों के लिए कितने मजबूर होते है... बेहद मर्मस्पर्शी लघुकथा अनु।
सस्नेह।
आभारी हूँ आदरणीय श्वेता दी जी।
Deleteसादर
बिटिया रानी के इन काग़ज़ों (टिसु पेपर ) की तरह होती है मुआवज़े की रकम। 'नाम बड़े दर्शन छोटे' किसान के ज़ख़्मों का उपचार नहीं करता कोई, दिलासा बाँटते हैं।
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा....एक किसान का दर्द वही जानता है खून पसीने की कमाई पर मौसम की मार....
शब्दों का ताना-बाना बहुत ही लाजवाब बुना है आपने।
आभारी हूँ आदरणीय सुधा दी जी।
Deleteसादर
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (17-09-2021) को "लीक पर वे चलें" (चर्चा अंक- 4190) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
आभारी हूँ आदरणीय मीना दी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
मर्मस्पर्शी लघुकथा, आप बात को कितना गहनता से कहती हो अनिता !
ReplyDeleteलघुकथा के हर मापदंड पर खरी कथा।
आभारी हूँ आदरणीय कुसुम दी जी।
Deleteसादर
मार्मिक कहानी
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय उषा दी जी
Deleteसादर
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ सितंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आभारी हूँ आदरणीय श्वेता दी जी।
Deleteसादर
पढते-पढते मैं अपने गॉंव पहुँच गया। किसान की पीडा तो मानो इस देश का स्थायी-भाव ही हो गई है।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय सर।
Deleteसादर
किसानों का दर्द समेटे, आत्मविभोर करती लघुकथा ।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय जिज्ञासा दी जी।
Deleteसादर
गहनतम लेखन...।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय संदीप जी सर।
Deleteसादर
बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय अरुण जी सर।
Deleteसादर
लघुकथा में किसान के दर्द को समेट लिया । मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय संगीता दी जी।
Deleteसादर
इस अंतहीन दुःख का कोई तो छोर मिले । अति संवेदनशील लेखन ।
ReplyDeleteसही कहा दी... बहुत बहुत शुक्रिया आपका।
Deleteसादर
एक लम्बी खामोशी संवाद निगल जाती है बेहतरीन सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर।
Deleteसादर
एक लम्बी खामोशी संवाद निगल जाती है बेहतरीन सृजन
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कथा !
ReplyDeleteकिसान का दर्द ज़मीन से जुड़ा हुआ शख्स ही समझ सकता है.
वैसे किसानों में भी अमीर-ग़रीब किसान होते हैं.
सबसे बुरी हालत में खेतिहर मजदूर होता है जो कि व्यावहरिक दृष्टि से ज़मींदारों का और बड़े किसानों का, बंधुआ मजदूर जैसा होता है.
सादर प्रणाम सर।
Deleteसही कहा आपने ज़मीन से जुड़ा व्यक्ति ही किसानों की पीड़ा समझ सकता है।
अनेकानेक आभार सर।
आपका आशीर्वाद संबल है मेरा।
आशीर्वाद बनाए रखे।
सादर
हृदयस्पर्शी सृजन प्रिय अनीता ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय शुभा दी जी।
Deleteसादर