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Wednesday, 22 September 2021

टूटती किरण


    

           "जीजी! एक कप चाय के बाद ही बर्तन साफ़ करुँगी।”

दरवाज़े के पास अपना छोटा-सा बैग रखते हुए किरण संकुचित स्वर में कहती है।

”ठीक है, तुम बाथरूम की बकेट साफ़ करो तब तक मैं चाय बनाती हूँ।”

मालती किरण को काम बताते हुए चाय बनाने लगती है।

”नहीं जीजी! सब काम बाद में करुँगी। पहले तुम्हारे हाथों से बनी चाय पीऊँगी। आप अदरक और काली मिर्च की चाय बहुत अच्छी बनाते हो।”

कहते हुए किरण हॉल में बिछी मैट पर पालथी मार बैठ जाती है।

”  पल्लू के कितनी गठाने बांधे रखती हो,कहो क्या हुआ आज ऐसा?"

मालती चाय का कप किरण की ओर बढ़ाते हुए कहती है।

” वो तीन सौ छह वाली ठकुराइन है ना, अपनी बेटी को विदेश डॉ. बनन  भेज रही।”

किरण दीवार का सहारा लेने के लिए कुछ पीछे खिसकती है।

”इसमें नया क्या है, आजकल ज़्यादातर लोग भेजते हैं।”

मालती बेपरवाही दर्शाते हुए कहती है।

” वो तो ठीक है परंतु मैंने भी अपने मर्द से कहा, पारुल को भेजते हैं, उसने बहुत खरी-खोटी सुनाई। कहा- अपने बाप के घर में देखे हैं कभी तीस लाख रूपए ? जिस घर को पच्चीस वर्षों से सींचती आई हूँ, अचानक लग रहा है जैसे किसी ने घसीटकर घर से बाहर निकाल दिया हो, अरे!समझा देता परंतु यों...।”

घुटने पर ठुड्डी टिकाए किरण नाख़ुन खुरचने लगती है।

"मन छोटा मत करो, तुम्हारा पति होश में पैसे का हिसाब लगा रहा था और तुम ममता के मोह में बह रही थीं।”

कहते हुए मालती घर का सामान व्यवस्थित करने लगती है।

”नहीं जीजी! इतने वर्षों में उसने कभी नहीं कहा।”

किरण की सूखी आँखें सहानुभूति की नमी में डूबने को तत्पर थीं, गर्दन कंधा ढूँढ़  रही थी किसी अपने का।

मालती के पास उसके लिए न सहानुभूति थी न सहारा,नित नई कहानी न सुनाए इसीलिए  अनसुनाकर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती है परंतु उसके शब्द कलेजे को बींध रहे थे।

”आप नहीं समझोगी जीजी! साहब की पलकों पर राज जो करती हो, रिश्ते जब बोझ बनने लगते हैं तब दीवारें भी काटने को दौड़ती हैं, अब तो लगता है मरे रिश्तों को कंधों पर ढो रही हूँ, लाश वज़न में ज़्यादा भारी होती है ना!”

कहते हुए किरण रसोई में बर्तन साफ़ करने लगती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


14 comments:

  1. मर्म को छू गई आपकी यह रचना।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय जितेंद्र जी सर।
      सादर

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  2. क्या सहानुभूति और सहारा दे मालती किरण को...वह भी तो औरत ही है न...मालकिन हो या नौकरानी व्यथाकथा अलग कहाँ है औरतों की।
    किसी न किसी छोर पर समानता...।
    बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय सुधा दी जी।
      सादर

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (24-09-2021) को "तुम रजनी के चाँद बनोगे ? या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?" (चर्चा अंक- 4197) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

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  4. "अपने बाप के घर में देखे हैं कभी तीस लाख रूपए ?"
    इस एक बात से औरत सबसे ज्यादा टूट जाती है।हृदयस्पर्शी कथा...प्रिय अनीता

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  5. बहुत ही मार्मिक दिल को छू जाने वाली लघुकथा

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  6. सालों पहले जिस दहलीज को किसी के लिए छोड़ आती हैं,
    उसी से ऐसा सुनना कितना दुखद होता होगा सच मर्नाणतक पीड़ा होती होगी ।
    बहुत ही गहन हृदय स्पर्शी भाव अभिनव लघुकथा।

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  7. बात रूपयों की नहीं व्यवहार की थी।
    किसी अपने से स्नेह भरे दो बोल अभाव,दुख या किसी भी विषम परिस्थिति में मरहम की तरह होते हैं और दुत्कार तोड़कर बिखेर देते हैं।
    बहुत गहन भाव पिरोये हैं अनु।
    बढ़िया लघु कथा।
    सस्नेह।

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  8. बहुत ही सुंदर लघुकथा

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  9. मन को छूती उत्कृष्ट लघुकथा ।

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  10. बहुत सुंदर कहानी,आदरणीया शुभकामनाएँ ।

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  11. रिश्तों का यूँ बोझ बनाना महसूस करना ही सरे दुःख की जड़ ही .... मर्मस्पर्शी कथा .

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