”बनारसी साड़ियों का चलन कहाँ रहा है?आजकल भाभी जी!”
कहते हुए प्रमिला अपनी साड़ी का पल्लू कमर में दबाती है और डायनिंग-टेबल पर रखा खाना सर्व करने में व्यस्त हो जाती।
” और यह जूड़ा तो सोने पे सुहागा, निरुपमा राय की छवि झलकती है। कौन बनाता है आज इस समय में; मुझे देखो! एक पोनी से परेशान हूँ।”
कहते हुए प्रमिला दिव्या की ओर दृष्टि डालती है।
”चलन का क्या छोटी! बदलता रहता है। तन ढकने को सलीक़े के कपड़े होने चाहिए।”
दिव्या अपनी कुर्सी को पीछे खिसकाकर बैठते हुए कहती है।
”बात तो ठीक है तुम्हारी परंतु समय के साथ क़दम मिलाकर चलना भी तो कुछ …!”
लड़खड़ाते शब्दों को पीछे छोड़ प्रमिला सभी को खाने पर आमंत्रित करते हुए आवाज़ लगाती है।
”तुम भी बैठो प्रमिला! "
कहते हुए दिव्या प्रमिला को हाथ से इशारा करती है।
” अब आपको कैसे समझाऊँ, शहर में लोग परिवार के सदस्य या कहूँ मेहमानों का आवागमन देखकर ही उनकी इमेज़ का पता लगा लेते हैं कि परिवार कैसा है?"
प्रमिला रिश्तों की जड़े खोदने का प्रयास करती है।
” मेहमान…!”
कहते हुए दिव्या भूख न होने का इशारा करती है।
”अब किसी को कुछ कहो तो लगता है नसीहत से कचोटती है, भाई साहब की छवि है वीर में, इसे आर्मी ज्वाइन क्यों नहीं करवाते? अब कहोगे वीर ही क्यों...?”
इस तंज़ से उत्पन्न बिखराव के एहसास से परे प्रमिला निवाला मुँह में लेते हुए कहती है।
" आती हूँ मैं...।”
कहते हुए दिव्या पानी का गिलास हाथ में लिए वहाँ से चली जाती है।