"महत्त्वाकांक्षाओं का ज्वार है।”
धैर्य ने समय की नब्ज़ टटोलते हुए कहा।
”नहीं! नहीं!! ज्वार नहीं ज्वर है। देखो! हो न हो यह कोरोना का क़हर है।"
नादानी तुतलाते हुए कहती है।
”अक्ल के अंधो देखो!
शब्दों को त्याग दिया है इसने
बेचैनियों की गिरफ़्त में कैसे तिलमिला रहा है!
लगता है प्रेम में है।”
धड़कन दौड़ती हुई आती है और समय का हाल बयाँ करती है।
”राजनितिक उथल-पुथल क्या कम सही है, समय सदमे में है।”
बुद्धि तर्क देते हुए अपना निर्णय सुनाती है।
धैर्य सभी का मुख ताकता है, कुछ नहीं कहता और चुपचाप वहाँ से चला जाता है।
"हुआ क्या? कुछ तो बताते जाओ।”
नादानी पीछे से आवाज़ लगाती है।
” कहा था ना! खुला मत छोड़ो स्वार्थ को, निगल गया विवेक को!”
कहते हुए धैर्य नज़रें झुकाए चला जाता है।
”परंतु ज्वर तो समय के है…!"
नादानी दबे स्वर में कहती है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 14 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आभारी हूँ आदरणीय यशोदा दी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभारी हूँ सखी।
Deleteसादर
चिन्तन परक सृजन ।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय मीना दी जी।
Deleteसादर
वाह!!!!
ReplyDeleteबहुत ही चिंतनपरक सृजन
वाकई समय सदमें में है और नादानी सबसे ज्यादा समझदार।
आभारी हूँ आदरणीय सुधा दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर स्नेह
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(14-12-21) को "काशी"(चर्चा अंक428)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
आभारी हूँ आदरणीय कामिनी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
वाह! बहुत ही बेहतरीन और सरहानीय!
ReplyDeleteकाश कि मैं भी एक दिन ऐसा लिख पाऊँ!
आभारी हूँ प्रिय मनीषा जी अत्यंत हर्ष हुआ आपकी स्नेह भरी प्रतिक्रिया से।
Deleteआप एक दिन मुझ से भी बेहतर लिखोगे।
बहुत सारा स्नेह
हृदय स्पर्शी रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया।
Deleteसादर
बहुत खूब।
ReplyDeleteआभारी हूँ।
Deleteसादर
अति उत्तम अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय अनीता दी जी।
Deleteसादर
Bahut khoob
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया।
Deleteसादर
"कहा था ना! खुला मत छोड़ो स्वार्थ को, निगल गया विवेक को!”
ReplyDeleteकहते हुए धैर्य नज़रें झुकाए चला जाता है।
”परंतु ज्वर तो समय के है…!"
असाधारण सोच, अभिनव प्रयोग बहुत सटीक हृदय को आलोडित करता सृजन।
अत्यंत हर्ष हुआ दी आपकी प्रतिक्रिया मिली सृजन सार्थक हुआ। स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसादर स्नेह
कमाल की अभिव्यक्ति है।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय उर्मिला दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसादर
वाह बहुत बढ़िया, चिंतनपूर्ण भी । सुंदर सारगर्भित सृजन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय जिज्ञासा दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर