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Thursday, 30 December 2021

नसीहत कचोटती है

   


                 ”बनारसी साड़ियों का चलन कहाँ रहा है?आजकल भाभी जी!”

कहते हुए प्रमिला अपनी साड़ी का पल्लू कमर में दबाती है और डायनिंग-टेबल पर रखा खाना सर्व करने में व्यस्त हो जाती।

” और यह जूड़ा तो सोने पे सुहागा, निरुपमा राय की छवि झलकती है। कौन बनाता है आज इस समय में; मुझे देखो! एक पोनी से परेशान हूँ।”

कहते हुए प्रमिला दिव्या की ओर दृष्टि डालती है।

 ”चलन का क्या छोटी! बदलता रहता है। तन ढकने को सलीक़े के कपड़े होने चाहिए।”

दिव्या अपनी कुर्सी को पीछे खिसकाकर बैठते हुए कहती है।

”बात तो ठीक है तुम्हारी परंतु समय के साथ क़दम मिलाकर चलना भी तो कुछ …!”

लड़खड़ाते शब्दों को पीछे छोड़ प्रमिला सभी को खाने पर आमंत्रित करते हुए आवाज़ लगाती है।

”तुम भी बैठो प्रमिला! "

कहते हुए दिव्या प्रमिला को हाथ से इशारा करती है।

” अब आपको कैसे समझाऊँ, शहर में लोग परिवार के सदस्य या कहूँ मेहमानों का आवागमन देखकर ही उनकी इमेज़ का पता लगा लेते हैं कि परिवार कैसा है?"

प्रमिला रिश्तों की  जड़े खोदने का प्रयास करती है।

” मेहमान…!”

कहते हुए दिव्या भूख न होने का इशारा करती है।

”अब किसी को कुछ कहो तो लगता है नसीहत से कचोटती है, भाई साहब की छवि है वीर में, इसे आर्मी ज्वाइन क्यों नहीं करवाते? अब कहोगे वीर ही क्यों...?”

इस तंज़ से उत्पन्न बिखराव के एहसास से परे प्रमिला निवाला मुँह में लेते हुए कहती है।

" आती हूँ मैं...।”

कहते हुए दिव्या पानी का गिलास हाथ में लिए वहाँ से चली जाती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Thursday, 23 December 2021

पचास पार की औरतें

   


     ”अरे थोड़ा कस के बाँध, देख! पत्ते खिसक गए हैं।”

संतो अपनी देवरानी सुचित्रा से घुटने पर आक के गर्म पत्ते बँधवाते हुए कहती है।

” पचपन की होने को आई जीजी! फिर भी बैल के ज्यों दौड़ती हो, क्यों करती हो इतनी भाग-दौड़ ?थोड़ा आराम भी कर लिया करो।”

सुचित्रा अपनी जेठानी संतो के घुटने पर गर्म पट्टी व पत्ते बाँधते हुए कहती है 

”अभी बैठी तो मेरी गृहथी तीन-तेरह हो जाएगी, मेरे अपने तो बादल को बोरे में भरने में व्यस्त हैं।”

कहते हुए संतो गुनगुनी धूप में वहीं चारपाई पर लेट जाती है।परिवार का विद्रोही व्यवहार कहीं न कहीं उसके मन की दरारों को और गहरा कर गया। दोनों देवरानी-जेठानी में इतना लगाव कि एक-दूसरे का मुँह देखे बगैर चाय भी नहीं पीती हैं।

”दो डग तुम्हें भी भरने होंगे जीजी!  समय के साथ देश-दुनिया बदल रही है।हर मौसम में झाड़ी के खट्टे बेर नहीं लगते।”

कहते हुए सुचित्रा धुँध में धुँधराए सूरज को ताकती है।

”तृप्ति का एहसास बंधनों से मुक्त करता है। मैं बेटे- बहुओं का चेहरा देखने को तरस गई।”

संतो पलकें झपकाती है एक गहरी सांस के साथ।

” नहीं जीजी! तुम्हारी आँखों पर मोह की पट्टी बँधी है, दिखता नहीं है तुम्हें; तुम्हारी एक गृहस्थी को तीन जगह बाँध रहे है। अब भला एक मटका लोटे में कैसे समाए?”

सुचित्रा वहाँ से उठते हुए कहती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Monday, 13 December 2021

अक्षत

      

           "महत्त्वाकांक्षाओं का ज्वार है।”

धैर्य ने समय की नब्ज़ टटोलते हुए कहा।

”नहीं! नहीं!! ज्वार नहीं ज्वर है। देखो! हो न हो यह कोरोना का क़हर है।"

नादानी तुतलाते हुए कहती है।

”अक्ल के अंधो देखो!

शब्दों को त्याग दिया है इसने 

बेचैनियों की गिरफ़्त में कैसे तिलमिला रहा है!

लगता है प्रेम में है।”

धड़कन दौड़ती हुई आती है और समय का हाल बयाँ करती है।

”राजनितिक उथल-पुथल क्या कम सही है, समय सदमे में है।”

बुद्धि तर्क देते हुए अपना निर्णय सुनाती है।

धैर्य सभी का मुख ताकता है, कुछ नहीं कहता और चुपचाप वहाँ से चला जाता है।

"हुआ क्या? कुछ तो बताते जाओ।”

नादानी पीछे से आवाज़ लगाती है।

” कहा था ना! खुला मत छोड़ो स्वार्थ को, निगल गया विवेक को!”

कहते हुए धैर्य नज़रें झुकाए चला जाता है।

”परंतु ज्वर तो समय के है…!"

नादानी दबे स्वर में कहती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Wednesday, 22 September 2021

टूटती किरण


    

           "जीजी! एक कप चाय के बाद ही बर्तन साफ़ करुँगी।”

दरवाज़े के पास अपना छोटा-सा बैग रखते हुए किरण संकुचित स्वर में कहती है।

”ठीक है, तुम बाथरूम की बकेट साफ़ करो तब तक मैं चाय बनाती हूँ।”

मालती किरण को काम बताते हुए चाय बनाने लगती है।

”नहीं जीजी! सब काम बाद में करुँगी। पहले तुम्हारे हाथों से बनी चाय पीऊँगी। आप अदरक और काली मिर्च की चाय बहुत अच्छी बनाते हो।”

कहते हुए किरण हॉल में बिछी मैट पर पालथी मार बैठ जाती है।

”  पल्लू के कितनी गठाने बांधे रखती हो,कहो क्या हुआ आज ऐसा?"

मालती चाय का कप किरण की ओर बढ़ाते हुए कहती है।

” वो तीन सौ छह वाली ठकुराइन है ना, अपनी बेटी को विदेश डॉ. बनन  भेज रही।”

किरण दीवार का सहारा लेने के लिए कुछ पीछे खिसकती है।

”इसमें नया क्या है, आजकल ज़्यादातर लोग भेजते हैं।”

मालती बेपरवाही दर्शाते हुए कहती है।

” वो तो ठीक है परंतु मैंने भी अपने मर्द से कहा, पारुल को भेजते हैं, उसने बहुत खरी-खोटी सुनाई। कहा- अपने बाप के घर में देखे हैं कभी तीस लाख रूपए ? जिस घर को पच्चीस वर्षों से सींचती आई हूँ, अचानक लग रहा है जैसे किसी ने घसीटकर घर से बाहर निकाल दिया हो, अरे!समझा देता परंतु यों...।”

घुटने पर ठुड्डी टिकाए किरण नाख़ुन खुरचने लगती है।

"मन छोटा मत करो, तुम्हारा पति होश में पैसे का हिसाब लगा रहा था और तुम ममता के मोह में बह रही थीं।”

कहते हुए मालती घर का सामान व्यवस्थित करने लगती है।

”नहीं जीजी! इतने वर्षों में उसने कभी नहीं कहा।”

किरण की सूखी आँखें सहानुभूति की नमी में डूबने को तत्पर थीं, गर्दन कंधा ढूँढ़  रही थी किसी अपने का।

मालती के पास उसके लिए न सहानुभूति थी न सहारा,नित नई कहानी न सुनाए इसीलिए  अनसुनाकर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती है परंतु उसके शब्द कलेजे को बींध रहे थे।

”आप नहीं समझोगी जीजी! साहब की पलकों पर राज जो करती हो, रिश्ते जब बोझ बनने लगते हैं तब दीवारें भी काटने को दौड़ती हैं, अब तो लगता है मरे रिश्तों को कंधों पर ढो रही हूँ, लाश वज़न में ज़्यादा भारी होती है ना!”

कहते हुए किरण रसोई में बर्तन साफ़ करने लगती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Tuesday, 14 September 2021

विकलित चित्त




           ”ग्वार की भुज्जी हो या सांगरी की सब्ज़ी, गाँव में भोज अधूरा ही लगता है इनके बिन।”

महावीर काका चेहरे की उदासी को शब्दों से ढकने का प्रयास करते हैं और अपने द्वारा लाई सब्ज़ियों की बड़बड़ाते हुए सराहना करने लगते हैं।

”क्यों नहीं आज फिर यही बनाती हूँ, बिटिया रानी को भी ग्वार बहुत पसंद है।”

गाँव से आई सप्ताहभर की सब्ज़ियों को संगीता फ़्रिज में व्यवस्थित करते हुई कहती है।

” नहीं! नहीं!! यह मेरी चॉइस नहीं है नानू, मेरे दाँतों में चुभता है ग्वार,मम्मी बनाती है फिर बार-बार रिपीट करती है, तुम्हारी चॉइस का खाना बनाया है आज।”

बिटिया रानी ऐसे चिल्लाई जैसे बहुत दिनों से मानसिक तनाव सह रही हो और आज नानू का स्पोर्ट पाते ही फूट पड़ी हो।

”आजकल के बच्चे देशी सब्ज़ियों कहाँ पसंद करते हैं?”

काका का भारी मन शब्दों का वज़न नहीं उठा पाया। बेचैनियाँ आँखों से झरती नज़र आईं। 

”ऐसा नहीं है। बिटिया को ग्वार बहुत पसंद है और फिर इतनी सारी खेत की सब्ज़ियों रोज़-रोज़ मार्किट जाने का झंझट ही ख़त्म।”

कहते हुए संगीता पास ही सोफ़े पर बैठ जाती है।

 शब्दों को जोड़-तोड़कर जैसे-तैसे तारीफ़ों के पुल बाँधने का प्रयास करती है कि कहीं बिटिया की हाज़िर-जवाबी से महावीर काका खिन्न न हो जाएँ।

”वैसे इस बार अनाज की पैदावार ठीक ही हुई होगी? "

संगीता बातों का बहाव बदलने का प्रयास करती है।

” कहाँ बिटिया! इस बार तो भादों की बरसात बीस एकड़ में खड़ी चौलाई की फ़सल लील गईं। बची हुई कड़बी काली पड़ गई।”

खेतों में हुए नुकसान को वो बार-बार दोहराते हैं। शहर में बिटिया को परीक्षा दिलाने आए तो है परंतु दिल वहीं गाँव में ही छोड़ आए। पगड़ी के लटकते छोर से आँखें मलते हुए कहते हैं।

"नानू मुझे पसंद है ग्वार।”

बिटिया दौड़कर पास ही रखा टिसु स्टैंड लाती है। उसे लगता है जैसे उसके कहने से इन्हें पीड़ा पहुँची हो।

” आप भी मुआवज़े की माँग किया करो।”

संगीता अपनी समझदारी का तीर तरकस से निकालते हुए कहती है।

”बिटिया रानी के इन काग़ज़ों (टिसु पेपर ) की तरह होती है मुआवज़े की रकम। 'नाम बड़े दर्शन छोटे' किसान के ज़ख़्मों का उपचार नहीं करता कोई, दिलासा बाँटते हैं।

महावीर काका थकान में डूबी आँखों को पोंछते हुए कहते हैं। 

एक लंबी ख़ामोशी संवाद निगल जाती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Sunday, 5 September 2021

आपणों मारवाड़



                      ”भगवती जीजी! पानी से के सूरज न सींच सी। तुम्हारे गाय न बाछी नीना बासी। देखो तो सही रोज़ मटको उठा चाल पड़े।”

सरबती काकी भगवती ताई का उपहास उड़ाती हुई, उनकी दुःखती रग पर हाथ रखते हुए कहती है।

”मैं और म्हारो खसम में तो माणस ही कोनी?”

कहते हुए भगवती ताई सर पर रखा मटका सुव्यवस्थित करती है और एक मटका कमर पर रख चल देती है।

देखते ही देखते उनके क़दमों की गति बाक़ी औरतों से स्वतः ही तेज़ हो जाती है।

छींटाकसी से कोसों दूर भगवती ताई अपने सौम्य स्वभाव के लिए जानी जाती है।

औलाद न होने का दुःख कभी उनके चेहरे से नहीं झलका।

” बात तो ठीक कहो जीजी! थोड़ी धीरे चालो। मैं तो यूँ कहूँ,थारो भी मन टूटतो होगो। टाबरा बिन फिर यो जीवन किस काम को। म्हारे देखो चार-चार टाबर आँगन गूँजतो ही रह है ।”

सरबती काकी ने अपनी मनसा परोसी कि वह अपना दुखड़ा  रोए और कहे।

”हाँ मैं अभागी हूँ,मेरा तो भाग्य ही फूटेड़ो है जो औलाद का सुख नसीब नहीं हुआ।”

परंतु भगवती ताई इन सब से परे अपनी एक दुनिया बसा चुकी है।

”आपणों मारवाड़ आपणी बेटियाँ न टूटणों नहीं,सरबती! उठणों सिखाव है। तू कद समझेगी।”

भगवती ताई दोनों मटके प्याऊ में रखते हुए कहती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Sunday, 15 August 2021

देशभक्ति एक रंग है



                  ”आज जवान के सीने पर एक और मैडल।” मूँछ पर ताव देते हुए रितेश ने अपनी पत्नी प्रिया से फोन पर कहा।

”बधाई हो...।”

प्रिया ख़ुशी और बेचैनी के तराज़ू में तुलते हुए स्वयं को खोज रही थी कि वह कौनसे तराज़ू में है ?

”अरे! हम तो हम हैं, हम थोड़े किसी कम हैं।”

अपनी ही पीठ थपथपाते हुए घर परिवार की औपचारिकता से परे ख़ुशियों की नौका पर सवार था रितेश।

”मन घबराता है तुम्हारे इस जुनून ...।”

प्रिया ने अपने ही शब्दों को तोड़ते हुए चुप्पी साध ली।

” मूँग का हलवा ज़रुर बनाना और हाँ! भगवान को भोग लगाना मत भूलना, तुम्हारा उनसे फ़ासला कम हो जाएगा।”

प्रिया के शब्दों को अनसुना कहते हुए अपनी ही दुनिया में मग्न रितेश जोर का ठहाका लगाया।प्रिया ने रितेश को इतना ख़ुश कभी नहीं देखा।

एक सेकंड के लिए प्रिया को लगा, कैसे नज़र उतारुँ रितेश की कहीं मेरी ही नज़र न लग जाए इसे।

”ससुराल बदलना पड़ेगा, कुछ दिनों की ब्रेक जर्नी मिलेगी; पूछना मत कहाँ जा रहे हो? मैं नहीं बताऊँगा।”

रिश्तों के मोह से परे रितेश अपनी ही दुनिया में मुग्ध था। ग़ुस्सा कहे या प्रेम प्रिया के हाथों फोन कट जाता है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Saturday, 7 August 2021

लोरी

           ”माँ बचपन में सुनाया करती थी वह लोरी सुनाओ ना।”

नंदनी ने अपनी माँ की गोद में सर रखते हुए कहा।

”मन बेचैन है लाडो?”

उसकी माँ ने स्नेह से पूछा।

”नहीं  ऐसा कुछ नहीं है।”

नंदनी ने अपनी माँ का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।

”कुछ तुम्हारे ससुराल कुछ जवाई जी की भी कहो।”

नंदनी की माँ ने उसका सर सहलाते कहा।

”माँ लोरी सुना न।”

अनसुना करते हुए नंदनी छोटी बच्ची की तरह इठलाई।

” अच्छा सुन...। "

”ओढ़नी की बूँदी,लहरिए री लहर,बिंदी री चमक,पायल री खनक,मेरे पोमचे रो गोटो तू

 मान-सम्मान-स्वाभिमान है तू।”

उसकी माँ ने पोमचे के पल्लू से बेटी नंदनी का मुख ढकते हुए कहा।

पहले सावन मायके नंदनी अनेक उलझनों के साथ आई थी।

”माँ...।”

और नंदनी मौन हो गई।

” हूँ ...बोल! न लाडो।”

नंदनी की माँ ने उसके मुख से पल्लू हटाया।

”मैं तुम्हारे सर का ताज हूँ यह नहीं कहा। ब्याह के बाद बेटियाँ पराई हो जाती हैं?”

 नंदनी ने अपने आकुल मन को सुलाते हुए पूछा।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Tuesday, 29 June 2021

गठजोड़

         




        ”इसे संदूक के दाहिने तरफ़ ही रखना।”
शकुंतला ताई अपनी छोटी बेटी बनारसी से कहतीं हैं।
हल्का गुलाबी रंग का गठजोड़ जिसमें न जाने कितनी ही गठानें  लगा रखी हैं । देखने पर लगता जैसे इसमें कोई महँगी वस्तु छिपाकर बाँध रखी हो।जब कभी भी शकुंतला ताई की बेटियाँ उनके संदूक का सामान व्यवस्थित करती हैं  तब ताई आँखें फाड़-फाड़ कर उस गठजोड़ को देखती और देखती कि दाहिने तरफ़ ही रखा है न।


”माँ! पिछले चालीस वर्ष से सुनती आ रही हूँ, दाहिने तरफ़ रखना... दाहिने तरफ़ ही रखना, कोई पारस का टुकड़ा है क्या इसमें ?”
बनारसी संदूक के ढक्क्न को ज़ोर से पटकती हुई कहती है और चारपाई पर ताई के पास आकर बैठ जाती है।
विचार करती है कुछ तो माँ ने इस गठजोड़ में बाँध रखा है, हाथ में लेने पर भारी भी लगता है।चाहकर भी वह अपनी माँ से पूछ नहीं पाती है।
सोचती है माँ के बाद सब मेरा ही तो है।


”पाँच मुसाफ़िरी कीं थी तुम्हारे बापू ने इराक़ की, उसके बाद नहीं आया; देख ज़रा पाँच गठानें ही हैं ना।”
शकुंतला ताई बेटी को हाथ का इशारा करती हुई कहतीं हैं।
स्मृतियों के वज़न से हृदय का भार बढ़ जाता है। रुँधा गला सांसों को रोक लेता है, नथुने फूल जाते हैं, सूखी आँखों से बहती पीड़ा चेहरे  की झुर्रियों में खो जाती है।


”हाँ पाँच ही गठानें हैं।”
बनारसी अपनी माँ से कहती है 

अचानक गठजोड़ का वज़न बनारसी को और भारी  लगने लगता है।

@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

Friday, 25 June 2021

फ़ख़्र



                          ”आतंकी मूठभेड़ में दो भारतीय जवान शहीद हुए। हमें फ़ख़्र है अपने वीर  जवानों पर जिन्होंने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए। ऐसे वीर योद्धाओं के नाम इतिहास के सुनहरे पन्नों में लिखे जाएँगे साथ ही आनेवाला समय हमेशा उनका क़र्ज़दार रहेगा।”


टी.वी. एंकर की आवाज़ में जोश के साथ-साथ सद्भावना  भी थी।
आठ वर्ष की पारुल टकटकी लगाए टी.वी देख रही थी कि अचानक अपनी माँ की तरफ़ देखती है।

”तुम्हें फ़ख़्र करना नहीं आता।”

कहते हुए -
स्नेहवश अपनी माँ के पैरों से लिपट जाती है।


”नहीं!  मैं अनपढ़ हूँ ना।”
कहते हुए मेनका अपनी ही साँस गटक जाती है।


” तभी ग़ुस्सा आने पर मुझे और भाई को मारती हो?”
पास ही रखे लकड़ी के मुड्डे पर पारुल बैठ जाती है।


”वो तो मैं... ।”
कहते हुए मेनका के शब्द लड़खड़ा जाते हैं ।
चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी तोड़ ही रही थी कि हाथ वहीं रुक जाते हैं और अपनी बेटी की आँखों में देखने लगती है।


”गाँव में सभी ने एक दिन फ़ख़्र किया था ना, तुम उनसे क्यों नहीं सीखती?”
निर्बोध प्रश्नों की झड़ी के साथ पारुल चूल्हे में फूँक देने लगती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Monday, 22 March 2021

दर्पण

                               दर्पण /अनीता सैनी 'दीप्ति'

 

                               ”टहलने निकली हो बहना?” 

 प्रगति के लड़खड़ाते क़दम देख मंदी ने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा। मंदी के दौर में प्रगति का टहलना उसे फूटी आँख न सुहाया। प्रगति सूखी नदी के समान थी उस नदी को निचोड़ने पर काया पर पड़े निशाना मंदी थी।

”नहीं! गलियों में प्रगति की महक फैलाने निकली हूँ।” प्रगति का तंज़ भरा स्वर हवा में गूँजा।

तंज़ से अनभिज्ञ मंदी ने चश्मा नाक पर सटाया। होंठों पर आई पपड़ी पर जीभ घुमाई और देखा! सूरज,चाँद,तारे और पृथ्वी सब एक जगह ठहरे हैं बस चल रही थी तो मंदी।

”नित नई नीतियों ने निबाला छीन लिया! मरे को मारने की ठानी है?” बैंच के पास ही दाना चुगने आए बेरोज़गार कबूतरों की गुटर-गूँ मंदी के कानों से टकराई।

”हाय! जहाँ देखो वहीं मेरे ही चर्चे!!  कमर ही तो तोड़ी है; मार थोड़ी डाला।” स्वयं के चर्चे पर मुग्ध हुई मंदी अपनी बलाएँ लेने लगी। बैंच के इस कोने से उस कॉर्नर तक खिसकते हुए एक हाथ से छड़ी दूसरे में अख़बार उठाया।  

लॉक डाऊन के दौरान भारी मंदी की मार। साथ ही बिलायती बबूल की पूँजी छत्तीस प्रतिशत बढ़ी।मुख-पृष्ठ की पंक्तियाँ देख मंदी बिफर उठी।

 "भाई! ज़माना तो देखो! कैसा आया है?कमर तोड़ी मैंने सुर्ख़ियाँ बटोरे कोई और…कलयुग है। घोर कलयुग।" कहते हुए मंदी वहीं पसर गई।

Monday, 8 March 2021

दृष्टिकोण

 


       ममा इसके चेहरे पर स्माइल क्यों नहीं है?” वैभवी ने बेचैन मन से अपनी मम्मी से कहा।

”बनाने वाले ने इसे ऐसा ही बनाया है।” वैभवी की मम्मी ने उससे कहती है। 

”उसने इसे ऐसा क्यों बनाया?”  पेंटिग देखते हुए वैभवी और व्याकुल हो गई।

”यह तो बनाने वाला ही जाने, उसकी पेंटिंग है।” वैभवी की मम्मी ने बहलाते हुए कहा।

”पेंटर को दोनों लड़कियों के चेहरों पर स्माइल बनानी चाहिए थी ना?”

वह एकाग्रचित्त होकर और बारीकी से पेंटिंग को देखने लगी।

”पेंटर जब मिलेगा तब कहूँगी, इसके चेहरे पर भी स्माइल बनाए।” उसकी मम्मी ने झुँझलाकर कहा।

”आपको तो कुछ नहीं पता ममा! इस लड़की की शादी बचपन में हुई थी। 

ऐसी लड़कियाँ कभी स्माइल नहीं करती।"

यह सुनकर वैभवी की माँ अपनी लाड़ली का चेहरा विस्फारित नज़रों से निहारती रह गई!
 
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Sunday, 28 February 2021

हाँ, डायन होतीं हैं !


         ”डायन होतीं हैं। हाँ, धरती पर ही होतीं हैं। अब बस उनके बदन से बदबू नहीं आती। बदसूरत चेहरा ख़ूबसूरत हो गया और न ही उनके होठों पर अब लहू लगा होता है। दाँत टूट चुके हैं। देखो! उनके नाख़ुँन घिस गए।  तुम्हें पता है, पता है न, बोलो! अरे बोलो न!! तुमने भी देखा है उसे ...?”

वह कमरे से बाहर दौड़ती हुई आई,घबराई हुई थी आँखों में एक तलाश लिए, पास खड़ी संगीता से पूछ बैठी।

न चेहरे पर झुर्रियाँ , न फटे कपड़े: पागल कहना बेमानी होगा। तेज था चेहरे पर, उम्र चालीस-पैंतालीस से ज़्यादा न दिखती थी। दिखने में बहुत ही सुंदर और शालीन थी वह।

”हाँ, होतीं  हैं जीजी! हमने कब मना किया, चलो अंदर अब आराम करो। लगन के बाद गुड्डू को हल्दी लगानी है। आपके बिन शगुन कैसे पूरा होगा? चलो-चलो अब आराम करो।”

दुल्हन की माँ उन्हें अंदर कमरे में ले जाती है।

इस वाकया के बाद माहौल में काना-फूसी होनी स्वभाविक थी। सभी की निगाहें उस बंद कमरे की तरफ़ थीं।

”कौन थी ये?”

संगीता ने पास बैठी एक महिला से दबे स्वर में पूछा।

”होने वाली दुल्हन की बूआ-सा हैं। सुना है इनके पति आर्मी में कोई बड़े पद से रिटायर्ड थे और बेटा भी आर्मी में कोई बड़ा ही अधिकारी था।”

महिला ने एक ही सांस में सब उगल दिया।

”नाम क्या था?”

संगीता ने बात काटते हुए कहा।

”नहीं पता! यही सुना बहु ने शादी के चार-पाँच महीनों में दोनों बाप-बेटे की कहानी ख़त्म कर, तलाक लेकर विदेश चली गई। बेटे ने रिवॉल्वर से ख़ुद को शूट कर लिया। पिता बेटे का ग़म सह न सका, कुछ दिनों बाद उसने भी आत्महत्या कर ली।”

महिला ने बड़े ही सहज लहज़े  में कहा, कहते हुए साड़ी और गहने ठीक करने में व्यस्त हो गई, अचानक कहा-

”वेटर कॉफ़ी।”

महिला ने कॉफी उठाई और चुस्कियों में डूब गई।

 वह बंद दरवाज़ा छोड़ गया मन में एक कसक कि क्या डायन होतीं हैं?


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Friday, 12 February 2021

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

     


           सावन महीने के दूसरे सोमवार की घटना है, संजू और उसकी सास उस रोज़ सुबह-सुबह शिवालय में जल चढ़ाने जातीं हैं। एक दिन मंदिर में पार्वती माँ उनको मिलती हैं, कॉलोनी की औरतें उन्हें इसी नाम से पुकारतीं हैं।

     ”आ बैठ ममता! मंदिर में कुछ देर ठहरने से मन्नतें पूरी होतीं हैं, कुछ देर प्रभु की शरण में बैठना भी सुकून दे जाता है। देखो! तुम्हें  कहना ठीक तो नहीं लगता, अपनी है सो कह देती हूँ।”

मंदिर की सीढ़ियों पर पार्वती माँ के साथ संजू और उसकी सास बैठ जातीं हैं।

   ”उस रोज़ तुम्हारे घर की चाय पी थी।”

पार्वती माँ कुछ ठहर जातीं हैं।

   ”अरे वो! बहू ने बनाई थी, बड़ी अच्छी चाय बनाती है म्हारी संजू।”

संजू की सास चहकते हुए कहती है।

   ” वो तो ठीक है परंतु मैं यों कहूँ, उसमें जले दूध की गंध आ रही थी; यों दूध जलाना-उफानना ठीक नहीं।मान्यता है कि शुभ नहीं होता।”

पार्वती माँ दान में मिले सीदे की पोटली अलग-अलग करतीं हुईं  कहतीं हैं।दोनों सास-बहू के माथे पर अपमान की सलवटें उभर आईं।

   ”ठीक है फिर चलते हैं, पार्वती माँ फिर कभी फ़ुरसत में बात करेंगे।”

संजू की सास उठने का प्रयास करती है।

   ”अरे नहीं! बैठ तो ज़रा।”

पार्वती माँ हाथ पकड़कर संजू की सास को वहीं बैठाती है।

   ”देख घर की बात है तब कहूँ, घर में चप्पलें ठीक तरह तरतीब से रखी रहनी चाहिए और चप्पल पर चप्पल बड़ा अपशकुन होता है, देख! पायदान को रोज़ झाड़ें और दहलीज़ पर हल्दी-कुमकुम के छींटे दिया कर। एक और बात

बहू को थोड़ा रोकती-टोकती रहा कर, रसोई में बर्तनों की ज़्यादा आवाज़ ठीक नहीं। बहू सुशील है परंतु कुछ संस्कार भी हों तो सोने पे सुहागा।”

अब पार्वती माँ के कलेज़े का भार कुछ कम हुआ और वे अपने आपको हल्का महसूस करने लगी, लंबी और चैन की सांस भरी।एक पल के लिए,

संजू और उसकी सास का मन भारी हो गया। दोनों के पैरों को जैसे जड़ों ने जकड़ लिया हो। संजू ने सोचा यह एक बार घर आई और पूरा निरीक्षण का पिटारा हमारे ही सामने खोल दिया। सास जिस बहू की तारीफ़ करते नहीं थकती, कॉलोनी में अब क्या कहेगी?

     ” पहले पहर ही मंदिर में आकर बैठ जाओ, कुछ देर बच्चों को भी सँभाल लिया करो।”

पार्वती माँ के बेटे की बहू हवा की तरह आती है और बच्चे को उसकी  गोद में थमा उसी गति से वापस चली जाती है। तीनों उसका मुँह ताकतीं रह जातीं हैं।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Monday, 8 February 2021

समझ का सेहरा

     


                     

                       ”आप क्या जानो जीजी, पीड़ा पहाड़-सी लगती है जब बात-बात पर  कोई रोका-टाकी करता है।”

पिछले काफ़ी दिनों से राधिका की जुबाँ पर यही बस यही शब्द कथक कर  रहे होते हैं। उसे देखकर लगता काटो तो ख़ून नहीं।

”अनसुना क्यों नहीं करती? क्यों दिल पर लेती है? तुम्हारे पति की आदत है।सास-सुसर बुज़ुर्ग  हैं।”

बदले में नीता का यही एक उत्तर राधिका को मिलता परंतु न जाने क्यों आज वह तमतमा गई।

”आप क्या जानो मेरे हृदय की पीड़ा, घूँघट में सभी बीनणीया बढ़िया दिखतीं हैं चेहरा तो घूँघट उठाने पर दिखता है।”

ग़ुस्से से तमतमाया राधिका का चेहरा लाल पड़ चुका था, इतने ग़ुस्से में वो कभी न होती थी।

”जीजी! आपको रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं है कि क्या बना रही हो? और क्या नहीं बनाओ? पति और सास-ससुर आपके कहे अनुसार चलते हैं आप कभी नहीं समझोगी  मेरी पीड़ा।”

राधिका आपे से बाहर हो आग-बबूला हो गई। इस समय नीता ने राधिका से ज़्यादा  वाद-विवाद करना ठीक नहीं समझा।

”तुम्हें फ़ीवर होता है तब तुम्हारे पति ही चाय बनाते होंगे और सास खाना, डॉ. के पास भी ले जाते होंगे?”

नीता आराम से राधिका से पूछती है।

”दायित्त्व है उनका और कौन करेगा? मैं फ़ीवर में काम क्यों करूँ?”

राधिका बेपरवाही में सिमटी अभी भी होश में नहीं थी।

” और तुम्हारा दायित्त्व ?"

नीता जल्द ही अपने शब्दों को बदलने का प्रयास करती है और कहती है -

” तुमने ठीक कहा, मैं नहीं समझूँगी क्योंकि मुझे कोई नहीं है यह कहने वाला कि आज तुम आराम करो तुम्हें फ़ीवर है,मैं चाय बनाता हूँ, आज बच्चों के स्कूल में, मैं ही चला जाता हूँ। कोई नहीं है ये कहने वाला कि माँ-बाबा की दवाई आज मैं ले आता हूँ। आज की ज़रूरतों को कल पर डालना कुछ भारी तो लगता ही होगा? परंतु तुम ठीक कहती हो मैं नहीं समझूँगी क्योंकि मैं तुम्हारी जगह नहीं हूँ।”


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Thursday, 4 February 2021

परिवर्तित परिवेश

                    


                ”बड़ी बहू कहे ज़िंदगीभर कमाया, किया क्या है? एक साइकिल तक नई नहीं ख़रीदी।”

बग़लवाली चारपाई पर ठुड्डी से हाथ लगाए बैठी परमेश्वरी अपने पति से कहती है।

”जब हाथ-पैर सही-सलामत तब गाड़ी-घोड़ा कौ के करणों।”

निवाला मुँह में लेते समय हाथ कुछ ठनक-सा गया, हज़ारी भाँप गए कि बहू दरवाज़े के पीछे खड़ी है और समझ गए अगले महीने होने वाले रिटायरमेन्ट पर उठनेवाले बवाल की लहरें हैं।

”मुझे तो समझ न थी, आप तो कुछ करके दिखाता बेटे-बहूआँ णा; जिणो हराम कर राखौ है। कहती है- के करौ  जीवनभर की कमाई को; आँधा पीसो कुत्ता खायो।”

परमेश्वरी पति की थाली में एक और रोटी रखती है, छाछ का गिलास  हाथ में थमाते हुए कहती है।

”घर आने से पहले इतनी हाय-तौबा, सोचता हूँ बाक़ी जीवन बसर कैसे होगा? पंद्रह जनों का पालन-पोषण कर रहा हूँ और क्या चाहिए?”

खाना अधूरा छोड़ हजारी थाली छोड़ उठ जातें हैं। हाथ धोकर तौलिए से हाथ पोंछते हुए अपनी चप्पलें चारपाई के नीचे से पैरों से खिसकाते हुए कहते हैं।

”अपने घर के पेड़ न सींचता! भाई-बहन को करो, कौन याद रखे।  परिवार के लिए बैंक में तो फूटी कौड़ी नहीं है, मैं नहीं बहू कहे।”

परमेश्वरी थाली स्टूल से उठाती हुई कहती है।

हज़ारी एक टक अपनी पत्नी की ओर देखते हैं, देखते हैं उसकी घबराई आँखों को; भोलेपन में डूबी बुढ़ापे की परवाह और बेटे-बहू की समझदारी के तैरते अनेक बैंक-बैलेंस के प्रश्नों को।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सीक्रेट फ़ाइल

         प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'लघुकथा डॉट कॉम' में मेरी लघुकथा 'सीक्रेट फ़ाइल' प्रकाशित हुई है। पत्रिका के संपादक-मंड...