Thursday, 3 February 2022

लेखा




               "चले आए मुँह उठाये।”

प्रगति ख़ाली  बर्तनों को सिंक में पटकते हुए कहती है।

" इतनी निर्मोही न बनो; पसंद नहीं हूँ यही कह दो, व्यवहार तो ऐसे कर रही हो ज्यों ट्रैफ़िक-पुलिस का काटा चालान हूँ।”

लेखा बड़े स्नेह से प्रगति के कंधे पर ठुड्डी रखते हुए कान में कहता है।

"पूछा कब था? पिछले एक वर्ष से देख रही हूँ तुम्हें ; क्या चल रहा है ये,और ये अट्ठाईस दिन पहले आने वाला क्या झंझट है!"

प्रगति अपनी मोटी-मोटी आँखों से लेखा को घूरती है।

"क्या करता मैं! ऊपर से ऑडर था; और फिर खानापूर्ति करके सब को बहलाना ही तो था।”

शब्दों पर लगी धूल झाड़ सफ़ाई की चाबी छल्ले में टाँगते हुए लेखा कहता है।

"नून न राई, तेल सातवें आसमान पर, गैस सलेंडर  एक हज़ार पार होने को आया ; हांडी में क्या मोबाइल पकाऊँ ?"

कहते हुए प्रगति ज़मीन पर पसर जाती है।

 "अगले वर्ष फिर आऊँगा, इस बार मोंगरे का गजरा लाऊँगा।”

भोली सूरत के पीछे शातिर दिमाग़ को छिपाते हुए। दाँत निपोरता है लेखा।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'