"चले आए मुँह उठाये।”
प्रगति ख़ाली बर्तनों को सिंक में पटकते हुए कहती है।
" इतनी निर्मोही न बनो; पसंद नहीं हूँ यही कह दो, व्यवहार तो ऐसे कर रही हो ज्यों ट्रैफ़िक-पुलिस का काटा चालान हूँ।”
लेखा बड़े स्नेह से प्रगति के कंधे पर ठुड्डी रखते हुए कान में कहता है।
"पूछा कब था? पिछले एक वर्ष से देख रही हूँ तुम्हें ; क्या चल रहा है ये,और ये अट्ठाईस दिन पहले आने वाला क्या झंझट है!"
प्रगति अपनी मोटी-मोटी आँखों से लेखा को घूरती है।
"क्या करता मैं! ऊपर से ऑडर था; और फिर खानापूर्ति करके सब को बहलाना ही तो था।”
शब्दों पर लगी धूल झाड़ सफ़ाई की चाबी छल्ले में टाँगते हुए लेखा कहता है।
"नून न राई, तेल सातवें आसमान पर, गैस सलेंडर एक हज़ार पार होने को आया ; हांडी में क्या मोबाइल पकाऊँ ?"
कहते हुए प्रगति ज़मीन पर पसर जाती है।
"अगले वर्ष फिर आऊँगा, इस बार मोंगरे का गजरा लाऊँगा।”
भोली सूरत के पीछे शातिर दिमाग़ को छिपाते हुए। दाँत निपोरता है लेखा।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
“इतनी निर्मोही न बनो; पसंद नहीं हूँ सीधा कह दो, व्यवहार तो ऐसे कर रही हो जैसे ट्रेफिक पुलिस का काटा चालान हूँ।”
ReplyDeleteचुटीले संवाद , महंगाई की मार और उपालम्भ भाव । सुन्दर सृजन ।
सुन्दर व्यंगात्मक सृजन
ReplyDeleteप्रगति और लेखा का वार्तालाप रोचक सामायिक ।
ReplyDeleteसटीक चिंतन के साथ व्यंग्य की तीखी धार।
अभिनव लघुकथा।
प्रगति बस कागजों में मुस्कुराती है बाकी तो यूंही सिर धुनती है बेचारी।।
लेखा हर वर्ष पुराने घावों को हरा करने आ जाता है।
आप की कल्पना शक्ति को नमन।
वाह अनीता, तुमने तो भारत की शाश्वत समस्या को बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है.
ReplyDeleteआज से लगभग 135 साल पहले श्री प्रतापनारायण मिश्र के उद्गार दृष्टव्य हैं-
महंगी और टिकस (टैक्स) के मारे सगरी वस्तु अमोली है
कैसे हम त्यौहार मनाएं कैसे कहिये होली है
जूता-चप्पल से हीरे की भी बात है
ReplyDeleteसुन्दर लेखन बजट पर..
क्या बात है, बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकहीं पे निगाहें पर कमाल का निशाना। बढ़िया कहा है।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-02-2022) को चर्चा मंच "यह है स्वर्णिम देश हमारा" (चर्चा अंक-4336) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बजट का लेखा मोंगरे का हार लायेगा !! सही कहख जीत लाना सीखा ही कहाँ है इसने...
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत ही लाजवाब धारदार व्यंग एकदम रोचक अंदाज में..
बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं ।
वाह! अनोखा अंदाज़
ReplyDeleteहम भी मोगरे के हार के इंतजार में हैं 😀
ReplyDeleteबजट पर कुछ नया अंदाज।रोती प्रगति और खीसें निपोरता लेखा।वाह बेहद शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteबजट पर इतनी खूबसूरत लघुकथा पहली बार देखी-पढ़ी...वाह अनीता जी वाह
ReplyDeleteउत्कृष्ट व्यंग्य
ReplyDeleteमहँगाई की मार और मन का बिखराव, बहुत सुन्दर कथा.
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