” मालिक! मैं यह न समझ पाया, आप कब हो आए? ज्ञान सरोवर!” नाथू ने जमीन पर सोने के लिए प्लास्टिक का त्रिपाल बिछाया।
” सात पीढ़ियों पहले हमारे पूर्वज होकर आए, हमारे तो ख़ून में बहता है ज्ञान।”
हुक्के की गुड़-गुड़ के साथ जमींदार का सीना छह इंच और चौड़ा हो गया। इस वार्तालाप के साक्षी बने चाँद- तारे घुटनों पर ठुड्डी टिकाए आज भी वैसे ही ताक रहे हैं जैसे वर्षों पहले ताक रहे थे।
”अब मालिक पीछला हिसाब कर ही दो, सोचता हूँ मैं भी ज्ञान सरोवर हो ही आता हूँ।”नाथू विचलित मन से जल्दी-जल्दी हाथों से त्रिपाल की सलवटें निकालने लगा।
”अरे! ऐसे कैसे हो आते हो? वो तो बहुत दूर है!”
हुक्के की गुड़-गुड़ और तेज हो गयी।
”कितना दूर मालिक, चाँद पर तो न ही ना?”
नाथू ने हाथ में लिया अंगोंछा सर के नीचे लगा लिया।
"मानसरोवर के भी उस पार, नाम सुना है कि नहीं? उससे भी कई पहाड़ी ऊपर, तुम रहने दो मर मरा जाओगे कहीं!” कहते हुए -
काली रात में नील गायों के आने की सरसराहट सुनते हुए जमींदार ने निगाह दौड़ाई।
”अब सोचता हूँ मालिक, कब तक आपही की खींची लकीरें देखता रहूँगा। कुछ कहूँ तब आप उपले की तरह बात पलट देते हो।”
नाथू ने हाथ में अंगोंछा लिए, फिर घुटनों के बल बैठ गया।
”फिर?”
जमींदार प्रश्न किया।
” फिर क्या यों हांडी में सर दिए नहीं बैठूँगा?अपनी लकीर खींचूँगा।”
कहते हुए नाथू मुँह पर अंगोंछा डालकर सो गया। रात भर हुक्के की गुड़-गुड़ उसके कानों में गुड़कती रही।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
” फिर क्या? यों हांडी में सर दिए नहीं बैठूँगा।अपनी लकीर खींचूँगा।”
ReplyDeleteवाह !! कमाल की संवाद शैली । बहुत सुंदर सृजन ।
हृदय से आभार आदरणीय मीना दी जी आपकी प्रतिक्रिया से ऊर्जा द्विगुणित हुई।
Deleteसादर स्नेह
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 4358 में दिया जाएगा | चर्चा मंच पर आपकी उपस्थिति चर्चाकारों की हौसला अफजाई करेगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
हृदय से आभार सर मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
वाह! बहुत सुंदर रचना, अब तो ज्ञान सरोवर सबके हाथों में है, न कोई छोटा ना बड़ा सभी को गूगल बाबा का आशीर्वाद एक समान रूप से मिल रहा है
ReplyDeleteसही कहा आदरणीय अनीता दी जी ज्ञान पर सभी का अधिकार है। हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर
रचना को पढ कर मुन्शी प्रेमचंद की याद आती है ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु। शब्द नहीं हैं क्या कहूँ...।उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचंद जी के लेखन के मर्म का एक अंश में अगर मेरे सृजन में मिला धन्य हुआ मेरा लेखन। ब्लॉग पर आते रहें।
Deleteमार्गदर्शन हेतु हृदय से आभार।
सादर
मन मस्तिष्क को झखझोरती पोस्ट बहुत बधाइयाँ
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteसादर
'गोदान' के 'ज़मींदार जिस तरह से ज़मीन पर सिर्फ़ अपना क़ब्ज़ा समझते हैं, किसी किसान का नहीं, उसी तरह से ज्ञान का ज़मींदार भी ज्ञान को अपनी बपौती समझता है. अगर और कोई ज्ञान की गंगा में डुबकी लगाना चाहता है तो वह अपने रौद्र रूप में आ जाता है. हर ज़मींदार 'मैं और मेरा मनसा' वाली कहानी ही दोहराता चाहता है.
ReplyDeleteसही कहा आदरणीय गोपेश जी सर ज्ञान का ज़मींदार भी ज्ञान को अपनी बपौती समझता है।
Deleteपरंतु यह गलत है। समय के साथ विचारों को भी बदलना चाहिए। प्रवर्तन को हृदय से लगाना चाहिए।
आपकी प्रतिक्रिया हमेशा ही मेरा उत्साह द्विगुणित है हृदय से आभार आपका सर।
आशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
अद्भुत प्रिय अनिता!आपकी कल्पना शक्ति आसाराम है, ज्ञान सरोवर जाने के माध्यम से आज नाथू ने विद्रोह का बिगुल बजा ही दिया धैर्य और ठोस भाषा में।
ReplyDeleteचेतना का उद्भव लिए सुंदर लघुकथा।
हृदय से आभार आदरणीय कुसुम दी जी साहित्य पर आपकी पकड़ कमाल की है। संबल बनती प्रतिक्रिया हेतु अनेकानेक आभार।
Deleteसादर स्नेह
कभी न कभी तो शुरुआत करनी ही होगी ..ज्ञान सरोवर में डुबकी लगाने का अधिकार सभी को है । बहुत सुंदर सृजन प्रिय अनीता ।
ReplyDeleteहृदय से आभार प्रिय शुभा दी जी स्नेहिल प्रतिक्रिया हृदय को ऊर्जावान बनाती है। आशीर्वाद बनाए रखें।
Deleteसादर स्नेह