अहं में लिप्त पुरुष-हृदय करवट बदलता, स्त्री-हृदय को अपने प्रभुत्त्व का पाठ पढ़ाते हुए कहता है-
" काल के पैरों की आहट हूँ मैं! जब-जब काल ने करवट बदली,मेरा अस्तित्त्व उभर कर सामने आया है।"
स्त्री-हृदय पुरुष-हृदय की सत्ता स्वीकारता है और खिलखिलाकर कहता है।
”चलो फिर बादलों में रंग भरो! बरसात की झड़ी लगा दो।”
कुछ समय पश्चात बादल घने काले नज़र आते हैं और बारिश होने लगती है।
”अब धूप से आँगन सुखा दो।”
कुछ समय पश्चात धूप से आसमान चमक उठता है।
" अच्छा अब अँधरे को रोशनी में डुबो दो। "
और तभी आसमान में चाँद चमक उठता है।
समय के साथ पुरुष-हृदय का सौभाग्य चाँद की तरह चमकने लगता है।
अगले ही पल प्रेम में मुग्ध स्त्री-हृदय पुरुष-हृदय से आग्रह करते हुए कहता है-
"अब मुझे खग की तरह पंख लगा दो, पेड़ की सबसे ऊँची शाख़ पर बिठा दो।"
पुरुष-हृदय विचलित हो उठा, स्त्री-हृदय की स्वतंत्रता की भावनाएँ उसे अखरने लगती है। ”मुक्त होने का स्वप्न कैसे देखने लगी?” उसी दिन से पुरुष-सत्ता क्षीण होने लगती है।
पेड़ की शाख़ पर बैठा पुरुष-हृदय छोटी-छोटी टहनियों से स्त्री-हृदय को स्पर्श करते हुए, स्वार्थ में पगी उपमाएँ गढ़ता है वह कोमल से अति कोमल स्त्री-हृदय गढ़ने का प्रयास करता है प्रेम और त्याग का पाठ पढ़ाते हुए कहता है -
”तुम शीतल झोंका, फूलों-सी कोमल, महकता इत्र हो तुम ममता की मुरत, प्रेमदात्री तुम।"
स्त्री-हृदय एक नज़र पुरुष-हृदय पर डालता है शब्दों के पीछे छिपी चतुराई को भाँपता है और चुप चाप निकल जाता है।
” बला ने गज़ब ढाया है! रात के सन्नाटे को चीरते हुए निकल गई ! पायल भी उतार फेकी! चुड़ैल कैसे कहूँ? गहने भी नहीं लादे! लालचन लोभन कैसे कह पुकारूँ?"
वृक्ष की शाख़ पर बैठा पुरुष-हृदय, पेड़ के नीचे टहलते स्त्री-हृदय को देखता है।
देखता है! मान-सम्मान और स्वाभिमान का स्वाद चख चुका स्त्री-हृदय तेज़ धूप, बरसते पानी और ठिठुराती सर्दी से लड़ना जान चुका है। वर्जनाओं की बेड़ियों को तोड़ता सूर्योदय के समान चमकता, धरती पर आभा बिखेरता प्रकृति बन चुका है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति '
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 04 अप्रैल 2022 ) को 'यही कमीं रही मुझ में' (चर्चा अंक 4390 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हृदय से आभार सर मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
बहुत ही शानदार लघुकथा ।
ReplyDeleteप्रतीकात्मक शैली सटीक बिंब के साथ गहन संवेदना से भरे कथन।
अप्रतिम।
हृदय से आभार आपका मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
रचना सार्थक है इसमें कोई दो राय नहीं है ।
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
हृदय से आभार सर उत्साहवर्धन हेतु।
Deleteसादर
आदिम काल से चला आ रहा स्त्री पुरुष सम्बन्ध का सच बताती, प्रतीक बिम्बों के माध्यम से चमत्कार भरती लघुकथा सचमुच सराहनीय है;
ReplyDeleteमेरी एक कविता है जिसमें मैंने बिल्कुल यही कहने का प्रयास किया है जो आप इस लघुकथा में कह रही हैं;
चिंगारी हूं मैं
दबी रहने दो
यदि मुझे जगा दिया
तो मेरा तेज तुम नहीं सह पाओगे।
सुंदर लघुकथा के लिए बधाई।
अनेकानेक आभार आदरणीया सरोज दहिया दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा स्नेह आशीर्वाद बनाए रखें।
Deleteसादर स्नेह
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,वाह वाह वाह!
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
बहुत सुन्दर कथा.
ReplyDeleteअनीता, सोने के पिंजड़े में क़ैद और सुख-सुविधा के लिए दूसरों की मोहताज मैना को आखिर तुमने अपने दम पर खुले आकाश में उड़ने की हिम्मत दिला ही दी.
तुम्हारी तारीफ़ करने के साथ-साथ तुम्हें शाबाशी देने का भी मन कर रहा है.
आदरणीय गोपेश मोहन जैसवाल जी सर हृदय से आभार आपका।
Deleteमुझे लगा मुझे इस लघुकथा हेतु विरोध सहना पड़ेगा। सच आपके विचार सराहनीय है काश समाज बहू -बेटियों की भी पीठ थपथपाना सीख जाए।
आपकी शाबासी मुझ तक पहुंची मेरा संबल बनी एक बार फिर हृदय से आभार आपका।
आशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
पुरूष हृदय और स्त्री हृदय का बहुत ही सुन्दर विवेचन...कमाल का लेखन...
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं प्रिय अनीता जी !
हृदय से आभार आदरणीय सुधा दी जी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर