”मौत पृष्ठभूमि बनाकर थोड़े ही आती है कभी भी कहीं भी दबे पाँव चली आती है।”
कहते हुए सुखवीर ने जग से गिलास में पानी भरा।
”खाली रिवॉल्वर से जूझती मेरी अँगुलियाँ! उसका रिवॉल्वर मेरे सीने पर था। नज़रें टकराईं! कमबख़्त ने गोली नहीं चलाई?”
सुखवीर माँझे में लिपटे पंछी की तरह छटपटाया।मौत का यों गले मिलकर चले जाना उसके के लिए अबूझ पहेली से कम न था। उसने अर्पिता की गोद में सर रखते हुए कहा-
”यही कोई सतरह-अठारह वर्ष का बच्चा रहा होगा! अपने माधव के जितना, हल्की मूँछे, साँवला रंग, लगा ज्यों अभी-अभी नया रंगरूट भर्ती हुआ है।”
दिल पर लगी गहरी चोट को कुरेदते हुए,सुखवीर बीते लम्हों को मूर्ति की तरह गढ़ रहा था। आधी रात को झोंपड़ी के बाहर गूँजता झींगुरों का स्वर भी उसके साक्षी बने।
”भुला क्यों नहीं देते उस वाक़िया को?”
सुखवीर के दर्द का एक घूँट चखते हुए, अर्पिता ने उसके सर को सहलाते हुए कहा।
ख़ामोशी तोड़ते हुए सुखवीर बोल पड़ा-
” बंदा एहसान कर गया एक फौजी पर !”
हृदय की परतों में स्वयं को टटोलते हुए सुखवीर ने अर्पिता को एक नज़र देखा फिर उसी घटना में डूब गया। मन पर रखे भार को कहीं छोड़ना चाहता था।अर्पिता को लगा कि वह टोकते हुए कहे-
”वह पल सौभाग्य था मेरा।” परंतु न जाने क्यों ख़ामोशी शब्द निगल गई। महीनों से नींद को तरसती आँखें एक ओर मुट्ठी में दबा ज़िंदगी का टुकड़ा सुखवीर को कहीं चुभने लगा था एक आह के साथ बोल फूट ही पड़े।
”उस अपनी ज़िंदगी नहीं गवानी चाहिए थी।”
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
अद्भुत.....!
ReplyDeleteहृदय से आभार सर।
Deleteसादर
मंजी हुई कलम, एक लीक से हटकर लिखी गई लघुकथा उच्चकोटि की लघुकथाओं में गिनती होगी कभी ऐसा मेरा विश्वास है ।
Deleteहृदय से आभार आदरणीया सरोज दहिया दी जी आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ।
Deleteआशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
अद्भुत…,लघुकथा का ताना-बाना प्रभावशाली कथानक और संवाद शैली से गूँथा गया है जो पढ़ने के बाद मस्तिष्क पर छाप छोड़ता है ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
सराहनीय
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका उत्साहवर्धन प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
सुन्दर भाव लिये हुए है ।
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
हृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-04-2022) को चर्चा मंच "धर्म व्यापारी का तराजू बन गया है, उड़ने लगा है मेरा भी मन" (चर्चा अंक-4406) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' --
आभारी हूँ सर मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
उम्दा लेखन
ReplyDeleteहृदय से आभार अनुज।
Deleteसादर
एक जीवंत कहानी.
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
सुन्दर लेखन
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
मार्मिक
ReplyDeleteहृदय से आभार अनीता जी।
Deleteसादर
स्वाभिमान का दरख्त टूट ही जाता है आखिर ...जिंदगी से मोह जो जाता है....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर मार्मिक सृजन।
हृदय से आभार प्रिय सुधा दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
Deleteसस्नेह आभार
सुंदर.. आगे जानने को उत्सुक करता टुकड़ा...हो सके तो इसे विस्तार देवें मैम...
ReplyDeleteजी अनुज!अगर माँ सरस्वती का आशीर्वाद रहा तो कभी आर्मी लाइफ पर नॉवेल लिखूँगी।। हृदय से आभार आपको लघुकथा अच्छी लगी।
Deleteसादर
वाह अनीता !
ReplyDeleteखैरात में मिली ज़िंदगी, कभी-कभी मौत से भी बदतर लगती है.
आदरणीय गोपेश मोहन जी सर अनेकानेक आभार आपका लघुकथा का मर्म स्पष्ट करती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसच सर ऐसे दर्द को झेल पाना बड़ा कठिन होता है।
आशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
फौजियों के लिए इस तरह मिला जीवन भी निकृष्ट जो जाता है ।।एक सच्चे सैनिक के मन की उथल पुथल को सार्थक शब्द दिए हैं ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीया संगीता स्वरूप दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
Deleteआशीर्वाद बनाए रखें।
सादर