Saturday, 23 April 2022

धरा की अंबर से प्रीत


               "ल रही थी देह मेरी तब अंबर ने छिटकी थी प्रेम की बूँदें!" घुटनों पर ठुड्डी टिकाए बैठी धरा ने निशा को निहारते हुए कहा।

” तुम्हारी मिट्टी की ख़ुशबु से महकती है सृष्टि   ।” तारों जड़ा-आँचल ओढ़े चाँदनी बरसाती निशा ने धारा का माथा चूमते हुए कहा। 

 "बाहों में ले कहता था अंबर कि ख़्याल रखना अपना। एक  आह पर दौड़ा चला आता था!" निशा से कहते हुए धरा अंबर के अटूट प्रेम-विश्वास की गाँठ पल्लू से बाँधते हुए फिर बड़बड़ाने लगी और कहती है-

”देखते ही देखते निहाल हो गई थी मैं! बादलों का बरसना साधना ही तो थी मेरी। गृहस्थी फल-फूल रही थी। निकम्मे बच्चों को पालना रेगिस्तान में दूब सींचने से कम कहाँ था? " कहते हुए शून्य में लीन धरा अपने अति लाड-प्यार से बिगड़ैल बच्चों को पल्लू से ढकती, धीरे-धीरे उनका माथा सहलाने लगती है।

” अमर प्रेम है आपका!” पवन, पेड़ पर टंगी होले से फुसफुसाती है। पवन के शब्दों को धरा अनसुना करते हुए कहती है-

”एक ही परिवार तो था!  देखते ही देखते दूरियों में दूरियाँ बढ़ गईं। चाँद का चाँदनी बरसाना, सूरज का भोर को लाना उसमें इतना आक्रोश भी न था। बादलों का यों भर-भरकर बरसना सब दाता ही तो थे ! बेटी बिजली का रौद्र रूप कभी-कभी पीड़ा देता, बेटी है ना;  लाडली जो ठहरी।” समर्पित भाव में खोई धरा, आह! के साथ तड़प उठी।

”पुत्र समय! प्रेम की प्रति छवि, गृहस्थी चलाने को दौड़ता, घर का बड़ा बेटा जो है! मैं भी दौड़ती हूँ उसके पीछे, ये न कहे माँ निढाल हो गई।” कहते हुए धरा होले से पालथी मार बैठ जाती है कि कहीं हिली तो नादान बच्चे भूकंप भूकंप कह कोहराम न मचा दे! कहेंगे, ग़ुस्सा बहुत करती है माँ।

" बच्चों की मनमानी पर यों पर्दा न डाला करो !” निशा धरा के कंधे पर हाथ रखती है।

" ना री क्या कहूँ उन्हें ? दूध के दाँत टूटते नहीं कि कर्म जले अक्ल फोड़ने बैठ जाते हैं ! पानी है!हवा है!! फिर भी और गढ़ने बैठ जाते हैं। नहीं तो यों अंबर को न उजाड़ते और मेरा आँचल तार-तार न करते।” कहते हुए धरा मौन हो जाती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

12 comments:

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    1. हृदय से आभार आपका।
      सादर

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 25 अप्रैल 2022 को 'रहे सदा निर्भीक, झूठ को कभी न सहते' (चर्चा अंक 4410) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. हृदय से आभार सर मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  3. अनीता, तुम्हारी प्रतीकात्मक रचनाएँ जयशंकर प्रसाद की प्रतीकात्मक रचनाओं की याद दिलाती हैं. नई पीढ़ी के और पुरानी पीढ़ी के आपसी शिकवे-गिले तो अनंत काल से चले आ रहे हैं. वैसे माँ की ममता तो भगवान की कृपा से भी बढ़ कर होती है अलबत्ता कभी-कभी बाप अपनी जिम्मेदारियों को सही ढंग से निभा नहीं पाता है. पहाड़ में नशेड़ी बापों की नापाक हरक़तों पर तो एक उपन्यास लिखा जा सकता है.

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    1. वाह!अनीता ,मैं तो नि:शब्द हूँ । कितनी खूबसूरती से सजाई है लघुकथा । माँ घरा का प्रेम बच्चों के प्रति गहरा है ..माँ है न ! पर बच्चे अपना कर्तव्य भूल रहे हैं । पर आखिर कब तक ? इतना कष्ट माँ को ? पता नहीं कब सुधरेंगे ।

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    2. हृदय से आभार प्रिय शुभा दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
      आशीर्वाद बनाए रखें।
      सादर

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    3. हृदय से आभार आदरणीय सर आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा। पीढ़ियों का अंतराल कहें या एक नासमझी कि हम समझ नहीं पाते जो आँखों के समक्ष होता है। स्वयं के विचारों का आवरण गढ़ने लगते है और कोशिश करते हैं यह सिद्ध करने की, कि यह विचार सामने वाले का है।पृथ्वी दिवस पर कुछ लिखने का मन हुआ और अपने बच्चों के लिए यह लघुकथा लिखी। इतने कम शब्दों में पृथ्वी की महिमा समेटना संभव नहीं है फिर भी उसके त्याग पर एक छोटी-सी लघुकथा लिखी।
      हृदय से आभार सर। आशीर्वाद बनाए रखें।
      सादर प्रणाम

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  4. भावपूर्ण और सुंदर

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    1. जी हृदय से आभार आदरणीय सर 🙏

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  5. अपने अति लाड-प्यार से बिगड़ैल बच्चों को पल्लू से ढकती है धरा, धीरे-धीरे उनका माथा सहलाती है।
    सही कहा बिगड़ैल बच्चे ही तो हैंहम सब धरा माँ का दोहन कर रहे...कमाल का ताना बाना बुना है अपनी चिर-परिचित प्रतीकात्मक शैली में...
    सराहना से परे...बहुत ही लाजवाब👌👌👌🙏🙏🌹🌹

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    1. हृदय से आभार आदरणीय सुधा दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
      सादर स्नेह

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