" माँ! बहुत चुभती हैं मोजड़ी।”
पारुल ने रुआशा चेहरा बनाकर माँ से कहा।
" नई मोजड़ी, सभी को अखरती हैं! धीरे-धीरे इनकी ऐसी आदत लगती है कि कोई और जँचती ही नहीं पैरों में।"
पारुल की माँ झूठ-मूठ की हँसी होठों पर टाँकते हुए मेहंदी के घोल को बेवजह और घोंटती जा रही थी।
"इनसे पैरों में पत्थर भी धँसते हैं।"
पारुल ने अपने ही पैरों की ओर एक टक देखा। मासूम मन जीवन के छाले देख सहम गया।
शून्य भाव में डूब चुकी उसकी माँ दर्द, पीड़ा; प्रेम इन शब्दों के अहसास से उबर चुकी थी।बस एक शब्द था गृहस्थी जिसे वह खींच रही थी। पारुल के पैरों में पड़े छालों पर मेहंदी का लेप लगाते हुए स्वयं के जीवन को दोहराती कि कैसे जोड़े रखते हैं रिश्तों की डोर? परिवार शब्द के गहरे में डूब चुकी उसकी माँ। बस एक ही शब्द हाँकती थी कुटुंब। उसकी माँ ने मेहंदी की कटोरी रखते हुए कहा-
”यह शब्द तेरे लिए नया है न, तभी चुभती हैं मोजड़ी।”
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहृदय से आभार ज्योति जी।
Deleteसादर
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-04-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4414 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति चर्चा मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
हृदय से आभार सर मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
सहनशील होना ठीक है पर दुःख को देखकर भी उससे मुक्त होने के लिए प्रयास न करना भी तो दुर्बलता की निशानी है
ReplyDeleteसच कहा आपने आदरणीय अनीता दी जी, शादी के बाद बेटियों से मुँह फेरना हमारे समाज की पुरानी परम्परा है। जो भी है मन में उठे एक ख़याल का ताना बाना बुना। आइना है मुँह कितने ही फेरे।
Deleteसादर
के बात स बाई सा घणी चोखी लिखी काणी।
ReplyDeleteपण की की बेटी न समझाओंगा और की की माँ न... थारो मन घणो काचो स।
थारी हिम्मत न तो पुरो गाँव सरावे।
दादी घणो आशीर्वाद भेजो।
हृदय से आभार आपका...अपना नाम लिखते मुझे अत्यंत हर्ष होता। अगर आप fb पर हैं तब भी बताना कौन हो?
Deleteमध्यम वर्ग में हर माँ बेटी की कहानी है। परंतु अब बदलना चाहिए। आपने लघुकथा के मर्म को समझा हृदय से आभार समाज का एक पहलू दिखाने का प्रयास था।
दादी का हृदय से बहुत बहुत आभार।
सादर
मेहन्दी के लेप और मोजड़ी के माध्यम से रिश्तों का ताना-बाना बहुत बारीकी से बुना है । अति सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय मीना दी आपकी प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ।
Deleteसादर स्नेह
gahan abhivyakti ,bahut sunder !!
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteसादर
सराहनीय ; गहन विचारों से गुंथा गया ताना बाना।
ReplyDeleteअपनी मंज़िल स्वयं तय करेगी, यह लघुकथा।
जी हृदय से आभार मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
वाह!अनीता ..क्या बात है ।शानदार सृजन !
ReplyDeleteहृदय से आभार प्रिय शुभा दी जी।
Deleteसादर
दिल को छू गई यह रचना।
ReplyDeleteकभी कभी ही ऐसी रचनाएं प्रकाशित होती हैं।
हृदय से अनेकानेक आभार सर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ।
Deleteसृजन सार्थक हुआ 🙏
स्त्री जीवन के मर्म को गहराई से खींचा है अनीता जी ।
ReplyDeleteसच बहुत कुछ कहती हुई लघुकथा । बधाई।
हृदय से आभार जिज्ञासा जी।
Deleteनई - नई मोजड़ी हो या नये रिश्ते की परेशानियां माँ का अनदेखा करना कहाँ ठीक है बेटियाँ सामजस्य बिठा लेती हैं जैसे तैसे...पर कई बार मुश्किलें ऐसी बढ़ती हैं का छोड़ ही देती हैं वे जीने का मोह...
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा।
शब्द नहीं हैं आपकी प्रतिक्रिया हेतु कि क्या कहूँ। स्वयं से यही कहूँगी
Deleteउठ ऐ नारी!
सुन! अंतर मन की किलकारी
पूर्णिमा की चाँदनी
स्वयं के वजूद की कर सवारी।
सादर स्नेह दी