बर्तनों की हल्की आवाज़ के साथ एक स्वर निश्छलता के कानों में कौंधा।
” निर्भाग्य है तू! यह ले, तेरा श्राद्ध निकाल दिया।” कहते हुए आक्रोशित स्वर में क्रोध ने थाली से एक निवाला निकाला और ग़ुस्साए तेवर लिए थाली से उठ गया।
”मर गई तू हमारे लिए …ये ले…।" मुँह पर कफ़न दे मारा ईर्ष्या ने भी।
"हुआ क्या?" निश्छलता समझ न पाई दोनों के मनोभावों को और वह सकपका गई।
समाज की पीड़ित हवा के साथ पीड़ा से लहूलुहान कफ़न में लिपटी निश्छलता जब दहलीज़ के बाहर कदम रखा तब उसका सामना उल्लाहना से हुआ।
” निश्छल रहने का दंड है यह ! " कहते हुए उल्लाहना खिलखिलाता हुए उसके सामने से गुज़र गया।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'