”पिता का हाथ छूटने पर भाई ने कलाई छोड़ दी और पति का साथ छूटने पर बेटे ने…।” कहते हुए बालों को सहलाती सावित्री बुआ की उँगलियाँ सर पर कथा लिखने लगी थी। अर्द्ध-विराम तो कहीं पूर्ण-विराम और कहीं प्प्रश्न-चिह्न पर ठहर जातीं। बुआ के विश्वास का सेतु टूटने पर शब्द सांसों के भँवर में डूबते परंतु उनमें संवेदना हिलकोरे मारती रही थी।
बाल और न उलझें इस पर राधिका ने एक नज़र सावित्री बुआ पर डालते हुए कहा-
”बाल उलझते हैं बुआ!”
" क्या करती हो दिनभर,बाल सूखे हाथ-पैर सूखे; कब सीखेगी अपना ख़याल रखना?" कहते हुए झुँझलाहट ने शब्दों के सारे प्रवाह तोड़ दिए, अब सावित्री बुआ के भाव शब्दों में उतर पहेलियाँ गढ़ने में व्यस्त हो गए।
” समर्पण दोष नहीं, आपका स्वभाव ही ममतामयी है।”
राधिका ने पलटकर बुआ के घुटनों पर ठुड्डी टिकाते हुए कहा।
"और उनका क्या ? उनका हृदय करुणामय नहीं…?”
माथे से टपकती पसीने की बूंदो में समाहित कई प्रश्न उत्तर की तलाश में भटक रहे थे राधिका को लगा यह कथा नहीं उपन्यास के बिछड़े किरदारों की पीड़ा थी जो उँगलियों के सहारे सर में डग भर रही थी।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'