”गणगौर विसर्जन इसी बावड़ी में करती थीं गाँव की छोरियाँ।”
बुआ काई लगी मुंडेर पर हाथ फेरती हुई उस पर बचपन की स्मृतियाँ ढूंढ़ने लगी।
दादी के हाथों सिले घाघरे का ज़िक्र करते हुए बावड़ी से कह बैठी -
”न जाने कितनी छोरियों के स्वप्न लील गई तु! पानी नहीं होता तो भी तुझमें ही पटककर जाती।”
आँखें झुका पैरों में पहने चाँदी के मोटे कड़ों को हाथ से धीरे-धीरे घुमाती साठ से सोलह की उम्र में पहुँची बुआ उस वक़्त, समय की चुप्पी में शब्द न भरने की पीड़ा को आज संस्कार नहीं कहे।
" औरतें जल्दी ही भूल जाती हैं जीना कब याद रहता है उन्हें कुछ ?”
बालों की लटों के रूप में बुआ के चेहरे पर आई मायूसी को सुदर्शना ने कान के पीछे किया।
" उस समय सपने कहाँ देखने देते थे घरवाले, चूल्हा- चौकी खेत-खलिहान ज़मींदारों की बेटियों की दौड़ यहीं तक तो थीं?”
जीने की ललक, कोंपल-से फूटते स्वप्न; उम्र के अंतिम पड़ाव पर जीवन में रंग भरतीं सांसें ज्यों चेहरे की झूर्रियों से कह रही हों तुम इतनी जल्दी क्यों आईं ?
चुप्पी तोड़ते हुए सुदर्शना ने कहा-
"छोरियाँ तो देखती थीं न स्वप्न।”
"न री! बावड़ी सूखी तो तालाब, नहीं तो कुएँ और हौज़ तो घर-घर में होते हैं उनमें डुबो देती हैं।”
”स्वप्न या गणगौर ?”
सुदर्शना ने बुआ को टटोलते हुए प्रश्न दोहराया।
हृदय पर पड़े बोझ को गहरी साँस से उतारते हुए सावित्री बुआ ने धीरे से कहा-
"स्वप्न।”
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
स्वप्न या गणगौर ?”
ReplyDeleteसुदर्शना ने फिर यही प्रश्न दोहराया।
बड़प्पन का मुकुट ज़मीन पर पटक, मुँह फेरते हुए धीरे से कहती है।
"दोनों।”
हृदयस्पर्शी .., भावपूर्ण कृति ।
हृदय से आभार आपका
Deleteसादर स्नेह
लगता है स्त्रियों को स्वप्न देखने की इजाज़त भी नहीं । देख भी लिया तो उनको कहीं भी कैसे भी डुबोना ही है । मर्मस्पर्शी लिखा है ।
ReplyDeleteहृदय se आभार आपका.
Deleteसादर स्नेह
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 29 जुलाई 2022 को 'भीड़ बढ़ी मदिरालय में अब,काल आधुनिक आया है' (चर्चा अंक 4505) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
हार्दिक आभार आपका मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteस्वप्न देखने की चाहे कितनी भी मनाही रही हो गणगौर में तो स्वप्न देख ही लिए होंगे चोरी छुपे ही सही मन ने ... डुबाने ही सही । आखिर मन पर किसका वश चलता है।
स्त्री हृदय सभी की परवाह कर चलता है घर परिवार पिता और पति लेकिन जैसे जैसे समय का सूरज ढलता है हृदय स्वतः बिखरने लगता ऐसी पीड़ा मैंने अनुभव की है काफ़ी औरतों की।
Deleteआपने सही कहा गणगौर ने तो स्वप्न देख ही लिया था अंत में उसे डूबना ही क्यों न पड़ा हो, मेरे भावों को समझने हेतु हृदय से अनेकानेक आभार।
सादर स्नेह
प्रिय अनीता ,बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन...। सपनों को डूबते देखना कितना कष्टदायक होता है ...।पर मन पर वश कहाँ ...
ReplyDeleteसही कहा प्रिय शुभा दी जी।
Deleteहृदय से आभार.
सादर स्नेह
आपके द्वारा कहानी गढ़ने का नायाब तरीका पाठक का मन मोह लेता है. स्वप्न द्वारा मन की भाव बाहर लाने की कला कहानी में रोचकता लाती है. लिखते रहें.
ReplyDeleteसादर नमस्कार सर।
Deleteहृदय से आभार।
आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ। आशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
अनीता, रंग-रंगीलो राजस्थान की महिमा का गुणगान तो तुमने बहुत बार किया है और बहुत सुन्दर तरीक़े से किया है लेकिन आज पहली बार तुमने राजस्थान के लिंगभेदी सामाजिक कलंक को अपनी लघु-कथा का आधार बना कर बड़े साहस का काम किया है. तुमको इसके लिए शाबाशी के साथ बधाई !
ReplyDeleteआदरणीय गोपेश जी सर सुप्रभात।
Deleteहृदय से आभार।
आपका आशीर्वाद हमेशा संबल प्रदान करता है।
मैं विरोध नहीं करती कभी ठीक है जो भी अवधारणा लोगों ने गढ़ी है कुछ विचार तो अवश्य किया होगा।
परंतु राजस्थान में नव विवाहिता गणगौर की स्थापना करती हैं सोलह दिन उसकी पूजा अर्चना करती हैं। उसके पीछे की कहानी शायद औरतों के हृदय में डर की स्थानपना करने हेतु ही गढ़ी गई है। शादी के बाद उन्हें इसकी याद दिलाई जाती है कि ध्यान रखना इसके साथ जो हुआ।मेरा दृष्टिकोण है किसी के हृदय पर आघात नहीं करना चाहती।
सादर प्रणाम
आपकी लिखी रचना सोमवार 01 अगस्त 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
हृदय से आभार आदरणीया संगीता दी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
स्त्री मन को छूती सराहनीय लघुकथा ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।
Deleteअनीता जी, गणगौर की कहानी तो मुझे नहीं मालूम है लेकिन आपकी रचना मन को छू गई।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार आपका
Deleteसारयुक्त ,गहन भाव उकेरे हैं।
ReplyDeleteअपने स्वप्नों को जीना हर स्त्री के भाग्य में कहाँ।
मन को अनेक प्रश्नों से बींधती मर्मस्पर्शी लघुकथा।
सस्नेह।
हृदय से अनेकानेक आभार आपका।
Delete"न री! बावड़ी सूखी तो तालाब, नहीं तो कुएँ और हौज़ तो घर-घर में होते थे उनमें डुबो देती।”
ReplyDeleteस्त्री के मन की पीर को छूती मार्मिक रचना👌
हृदय से आनेकाने आभार आदरणीय दी आपका।
Deleteजल्दी ही जीना भूल जाती हैं औरतें कब याद रहता है उन्हें कुछ ?” सही है। सादर।
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर
बहुत ही सुंदर भावपूर्ण सृजन
ReplyDeleteहृदय से आभार अनुज।
Deleteमोहक🌹🌹
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका
Deleteगणगौर के विसर्जन के साथ किशोर स्वप्नों का विसर्जन।
ReplyDeleteकितनी गहन मर्माहत पीड़ा होगी शारदा के उर में एक सपने देखने के वय में कितनी सखियों ने और कितनों ने पहले और कितनों ने बाद में अपने सपनों का विसर्जन किया होगा।
श्र्लाघनीय लेखन।
हृदय से आनेकानेक आभार आदरणीय कुसुम दी जी।
Deleteआपका आशीर्वाद यों ही बना रहे।
सादर स्नेह