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Monday, 15 August 2022

ठूँठ


                        रिमझिम बरसात कजरी के मीठे स्वर-सी प्रतीत हो रही थी। मानो एक-एक बूँद प्रेम में झूम रही थी। जो प्रेम में, उसके लिए बारिश प्रेमल और जिसका हृदय पीड़ा में, उसके लिए समय की मार! अपनों के लिए अपनों को दुत्कारना फिर उन्हें अपनाने की चाह में भटकना, ऐसी थी धन कौर।

”हवा के साथ बरसात भी अपना रुख़ बदल लेती है! इंसान की तो बिसात ही क्या?”

बड़बड़ाते हुए धनकोर घर की ओर बढ़ती जा रही थी।

 अधीर मन को ढाँढ़स बँधाती बारिश में भीगी ओढ़नी निचोड़ती गीता को देख अनायास ही कह बैठी।

”गृहस्थी में उलझी औरतें प्रेम में पड़ी औरतों से भी गहरी होती हैं।”

"स्पष्ट शब्द अशिष्टता की श्रेणी में कब खड़े कर दिए जाएँ और कब गिरा दिए जाएं।" इसी विचार के साथ धनकोर के दृष्टिकोण को समझते हुए,सीढ़ियों पर बैठी गीता ने सूखा टॉवल उसकी ओर बढ़ाया।

”दिमाग़ के खूंटे से विचारों की रस्सी न लपेटाकर अब कहती हूँ लौट आ, तू वह नहीं रही जो पच्चीस वर्ष पहले थी।” पश्चाताप की अग्नि में जलती धनकोर ममत्व भाव उड़ेलती, अचानक बिजली गिरे वृक्ष-सी बेटी से लिपटकर सुबकने लगी। उम्र के इस पड़ाव पर ज़रूरत का ताक़ाज़ा देती हुई इसी उम्मीद के साथ कि कोंपल फिर फूट जाएगी और वृक्ष हरा-भरा हो जाएगा।

"भूल क्यों नहीं जाते घटना और घटित लोगों को?किसी एक की परवाह में उलझी दूसरे के हृदय से कब ओझल हो जाती हैं गृहस्थ औरतें, जानती हैं ना आप?”

कहते हुए- गीता के आँसू बहे, न हृदय का भार बढ़ा और न ही पीड़ा के अनुभव से स्वर में आए कंपन ने रुख़ बदला।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

13 comments:

  1. यह रिश्तों की उलझन भरी लघु कथा लग रही है । एक कि बेवफाई दूसरे का आत्म सम्मान लेकिन वक़्त की मार के साथ ज़रूरतें बदल जाती हैं ।इंसान का रुख ज़िन्दगी में समझौतों पर आ टिकता है ।

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    1. सादर नमस्कार दी।
      आपने ठीक कहा एक पीढ़ी पहले की औरतों को देख भाव उपजे जिनकी पीड़ा मेरे लिए असहनीय थी। समय के भंवर में उलझा एक बिम्ब हृदय पर उभर आया।
      सादर

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  2. “गृहस्थी में उलझी औरते प्रेम में पड़ी औरतों-सी होती हैं। गृहस्थी की फ़िक्र बहुत सताती है उन्हें।”
    गृहस्थ जीवन की आपाधापी को सजीव करती मर्मस्पर्शी लघुकथा ।

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  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलबुधवार (17-8-22} को "मेरा वतन" (चर्चा अंक-4524) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  4. वाह! अनीता,सुंदर भावो से सजी लघुकथा । सच ही कहा आपने ताउम्र समझौता ही करती है ...स्वयं का अस्तित्व कहाँ रह जाता है फिर व


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  5. बहुत से प्रश्न उठ खड़े होते हैं, मुझे लघुकथाओं में एक लंबी कहानी के बीज दिखाई देते हैं।

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  6. बहुत ही सुन्दर सार्थक लघुकथा सखी

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  7. प्रभावशाली लेखन

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  8. स्पष्ट शब्द अशिष्टता की श्रेणी में कब खड़े कर दिए जाते हैं ।
    बहुत सटीक आजकल चापलूसों का जमाना है स्पष्टवादी फूहड़ कहलाता है और रिश्तों को निबाहते हुए भी तन्हा जीता है ।
    बहुत सुन्दर सार्थक लघुकथा ।

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  9. गृहस्थी के प्रेम में उलझी औरतें सचमुच एक ही तरफ इतनी उलझ जाती है कि उस एक प्रतिबद्धता में वो किसी एक को या कुछ को मासूमियत से उपेक्षित करती जाती हैं ।
    और एक ऐसा समय आता है कि उसी उपेक्षित पात्र की उसे कमी महसूस होती है या फिर याद आता है अपने द्वारा की गई अनदेखी।
    पर तब तक समय बीत चुका होता है।
    गहन भाव लिए हृदय स्पर्शी लघु कथा।

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  10. गहन भाव लिए बहुत सुंदर लघुकथा।

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  11. स्त्री विमर्श का सुंदर चित्रण ।

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