”देख रघुवीर ! इन लकड़ियों के पाँच सौ से एक रुपया ज़्यादा नहीं देने वाला। तुमने कहा यह चार खेजड़ी की लकड़ियाँ हैं, यह दो की भी नहीं लगती!”
दोनों हाथ कमर पर धरे एक पैर आगे बढ़ाए खड़ा प्राइमरी स्कूल का अध्यापक व रघुवीर का छोटा भाई धर्मवीर।
”कैसे नहीं लगती दोनों जगह वाली दो-दो खेजड़ी की लकड़ियाँ हैं, पूछो सुनीता, सुमन और सजना से, हम चारों ने मिलकर इकट्ठा की हैं।”
रघुवीर चोसँगी ज़मीन में गाड़ते हुए पसीना पोंछता है।
”देख भाई! पाँच सौ से एक रुपया ज़्यादा नहीं देने वाला,तू जाने तेरा काम जाने; अब तू यह बता सुखराम दो दिन से स्कूल क्यों नहीं आ रहा?”
धर्मवीर रघुवीर की दुःखती रग पर हाथ रखते हुए ऊँट पर बैठे सात साल के सुखराम की ओर इशारा करता है, सुखराम अध्यापक कहे जाने वाले काका को देखता हुआ दाँत निपोरता है।
”काका! काका! यह हमारे साथ भट्टे पर मिट्टी खोदने जाता है।”
तीनों लड़कियाँ एक स्वर में एक साथ बोलती हैं।
” तू इन छोरियों के जीवन से कैसा खिलवाड़ कर रहा है? पास ही के गाँव के स्कूल में दाख़िला क्यों नहीं करवाता इनका!”
पास पड़ी लकड़ियों को धर्मवीर घूम-घूमकर देखता है। ”हाँ लकड़ियाँ हैं तो मोटी-मोटी, बढ़िया है। आड़ू को क्या पता मन और पंसेरी का ?”
रघुवीर की मासूमियत पर धर्मवीर अपनी राजनीति का लेप चढ़ाता है।
”तू अपने भट्टे पर पराली क्यों नहीं काम में लेता? खेत की लकड़ियाँ मेरे भट्टे पर डाल दिया कर, मैं छोरियों के स्कूल की व्यवस्था करता हूँ। तू निरा ऊँट का ऊँट रहा, इन्हें तो इंसान बनने दे!”
कहते हुए धर्मवीर सूरज को ताकता हुआ वहाँ से स्कूल के लिए निकल जाता है।
बापू ! बापू ! स्कूल जाना है हमें।”
सुमन, सजना मन को पसीजते हुए कहती हैं।
”दिखता नहीं ! बापू की आँख में पसीना चला गया। चल दूर हट छाँव में बैठने दे!”
बड़ी लड़की सुनीता अपने पिता रघुवीर की ओर पानी से भरा जग बढ़ाती है।
”कलियुग में कौवों का बोलबाला है। कैसे बचेंगीं चिड़ियाँ ? कौन पिता होगा जो नहीं चाहता हो कि उसकी बेटियों को पंख और खुला आसमान न मिले?”
रघुवीर घर्मवीर की ओर देखता हुआ अंगोंछा सर पर कस के बाँधता है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
यथार्थ का सटीक चित्रण। सराहनीय लघुकथा ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteसादर स्नेह
कौन पिता होगा ऐसा, जो नहीं चाहता कि उसकी बेटियों को उड़ने के लिए पंख और खुला आसमान मिले ? लाजवाब लघु कथा ।
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteविचारणीय लघु कथा । लड़कियों को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिल पाती । सुरक्षित रखने के लिए उनके पंख ही कतर दिए जाते हैं ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीया संगीता दी जी सृजन सार्थक हुए।
Deleteआशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
लड़कियों की सुरक्षा की चिंता माता-पिता को हमेशा लगी रहती है ।पिता की इसी सोच को दर्शाती सुन्दर लघुकथा ।
ReplyDeleteसही कहा आपने दी पिता के कठोर व्यवहार में भी प्रेम होता है। उसके निर्णय में परिवार की रक्षा का भाव।
Deleteहृदय से आभार।
सादर स्नेह
आपकी लिखी रचना सोमवार 22 अगस्त 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
हृदय से आभार आदरणीया दी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
पिता की मजबूरी ...समझती हैं पुत्रियाँ भी.
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीया दी।
Deleteसमसामयिक और सार्थक रचना यथार्थ को बखूबी रेखांकित किया है आपने
ReplyDeleteहृदय से आभार प्रिय सखी।
Deleteसादर
बहुत मार्मिक कहानी !
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका दी।
Deleteलड़कियां सुरक्षित रहें बस सुंदर लघुकथा
ReplyDeleteजी सही कहा आपने।
Deleteहृदय से आभार आपका
कलियुग में कौवों का बोलबाला है। कैसे बचेंगीं चिड़ियाँ ? कौन पिता होगा जो नहीं चाहता हो कि उसकी बेटियों को पंख और खुला आसमान न मिले?”
ReplyDeleteसंवेदनशील प्रश्न करती सराहनीय लघुकथा अनु।
सस्नेह।
हृदय से आभार श्वेता दी आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ।
Deleteसादर स्नेह
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-08-2022) को "उमड़-घुमड़ कर बादल छाये" (चर्चा अंक 4531) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदय से आभार आदरणीय सर मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
बेटियों के प्रति असुरक्षा की भावना पिता को मजबूरीवश कठोर बना देती है। पिता की इस मजबूरी को बेतिया भी बखूबी पहचानती है। सुंदर लघिकथा।
ReplyDeleteजी हृदय से आभार प्रिय ज्योति बहन।
Deleteसादर स्नेह
मार्मिक अभिव्यक्ति, वाह वाह!
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
"कलियुग में कौवों का बोलबाला है। कैसे बचेंगीं चिड़ियाँ ?" सबसे बड़ा सच! 'बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ' के संदेश शंखनाद करती लघुकथा!
ReplyDeleteहृदय से अनेकानेक आभार आदरणीय विश्वमोहन जी सर।
Deleteलघुकथा के मर्म को स्पष्ट करती प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ।
सादर नमस्कार
बहुत ही सुंदर भावपूर्ण हृदयस्पर्शी सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार अनुज आपका।
Deleteमार्मिक कथा !
ReplyDeleteलड़कियां अपने-अपने बापों पर जान छिड़कती हैं और उनका दर्द समझती हैं. पर क्या उनके बाप उन्हें बोझ मानने के अलावा कुछ समझते हैं?
आदरणीय गोपेश मोहन जी सर हार्दिक आभार,आपका दृष्टिकोण मिला इस लघुकथा पर।
Deleteसही कहा आपने,क्या आप की दृष्टि में सच एक पिता ऐसे विचार रखता है? या सदियों से ऐसी हवा गढ़ी जा रही है कि वह बाप बेटियों को बोझ समझे अगर वह नहीं समझता तो उसे गुनहगार बनाकर लाइन में खड़ाकर दिया जाता है कि उसने क्यों ऐसा विचार नहीं किया।
सादर प्रणाम
कलियुग में कौवों का बोलबाला है। कैसे बचेंगीं चिड़ियाँ ? कौन पिता होगा जो नहीं चाहता हो कि उसकी बेटियों को पंख और खुला आसमान न मिले?”
ReplyDeleteपर कौवों के डर से कब तक छुपेंगी चिड़िया... अब बेटियों के पिताओं को बेटियों का सम्बल बन उन्हें खुला आसमान देना ही होगा
कटु सत्य को उजागर करती बहुत ही लाजवाब लघुकथा ।
जी सही कहा आपने हार्दिक आभार।
Deleteक्या बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने। कलियुग में कौओ वाली बात बहुत फिट बैठती है। हालाँकि मेरा मानना है कि चिड़ियों को जीना है तो कौओं से लड़ने और बचने का कौशल सीखना ही होगा। यही एक मार्ग है। आपकी यह लघुकथा सीधे हृदय को झकझोर रही है। आपको बहुत-बहुत बधाईयां। शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका ऊर्जावान प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ।
Deleteसादर