”हवा के अभाव में दम घुटता है, हमारा नहीं; पहाड़ों का। द्वेषी है! पेड़ों को पनपने नहीं देता!! "
पहाड़ों पर भटकते एक पंछी ने फोन पर अपनी पत्नी से कहा।
"कौन है द्वेषी?"
पत्नी ने सहज स्वर में पूछा।
”सूरज! कुछ दिनों से पृथ्वी से अनबन जो चल रही है उसकी !!”
पंछी सूरज, पृथ्वी और पहाड़ों से अपनी नज़दीकियाँ जताते हुए बड़ी चट्टान के सहारे पीठ सटाकर बैठते हुए कहता है।
”तुम सुनाओ! तुम्हारे यहाँ क्या चल रहा है?
पंछी ने व्याकुल स्वर में पूछा।
”कुछ नया नहीं! वही रोज़ का रुटीन!! दैनिक कार्यों में व्यस्त धूप धीरे-धीरे दिन सोख रही है। तीसरे पहर की छाँव तारीख़ से मिटने की पीड़ा में दहलीज़ पर बैठी है। समय चरखे पर लिपटने के लिए तेज़ी से दौड़ रहा है।”
पत्नी ने दिन का ब्यौरा देते हुए एक लंबी सांस भरी।
"और पौधे?” पंछी ने तत्परता से पूछा।
”पौधे नवाँकुर खिला रहे हैं तो कहीं फूलों में रंग भर रहे हैं।”
पत्नी ने बड़ी सहजता से कहा।
”हूँ " के साथ पंछी और पहाड़ों ने गहरी सुकून की सांस भरी जैसे हवा का झोंका नज़दीक से गुज़रा हो!
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4560 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
सुंदर अभिव्यक्ति, अनिता।
ReplyDeleteपहाड़ों पर भटके पंछीयों का भाव पूर्ण चित्रण। न जाने क्यों घोंसला होते हुए भी ठंड में ठिठुरते हैं। पौधे यों ही फूलों में रंग भरते रहे।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सुकून का झोंका।