Tuesday, 27 September 2022

मेली मंशा

        


         

                   भोर की वेला में सूरज अपना तेज लिए आँगन में उतरते हुए कह रहा था- "देख!  मैं कितना चमक रहा हूँ। बरसाता कच्ची धूप काया की सारी थकान समेटने आया हूँ।"

 रेवती कह रही थी-  ” दूर हट मरजाणा! सर पै मंडासो न मार।”

  तभी उसके दरवाज़े पर दस्तक हुई।

”ताई देख! कौण आया है?” श्यामलाल ने दूर खड़ी एक औरत की ओर इशारा किया।

”क्यों, तेरे बाप ने दूसरा विवाह कर लिया क्या?”रेवती ने बाड़ पर फैली तोरई और घीया की बेल ठीक करते हुए उसने बिन देखे ही कहा।

” कभी तो सीधे मुँह बात कर लिया कर ताई।”श्यामलाल ने झुँझलाते हुए कहा ।

”ठीक है, मुँह मोगरी-सा न बना; बता कौण है?” रेवती ने पलटकर देखते हुए कहा।

”दिखती तो औरत ही है, भीतर क्यों न आई बैरन।” रेवती ने माथे पर हाथ सटाकर कहा।

”कांता! ओह!! म्हारी कांता।यह वही कांता है जो वर्षों पहले रूठकर चली गई थी। देख तो! कितनी काली पड़ गई है म्हारी छोरी। तेरे ख़सम के अनाज कम पड़ गया था के ?” बड़बड़ाते हुए अपनी बेटी की ओर दौड़ी तो ख़ुशी में बढ़ते कदम सहसा रुक गए।

” ठहर कांता! तू ऐसे ना जा सके। सुन बावली! आठ वर्ष की छोरी न बाप कोण्या मिला करें।”

कहते हुए रेवती आवाज़ पर आवाज़ दिए जा रही थी।

"नहीं!नहीं!! और न सह सकूँ अब,मेरा है ही कौण यहाँ?”

आठ साल की बच्ची की ऊँगली पकड़े  कांता तेज़ गति से चलती जा रही थी। बेटी रीता माँ!माँ!! पुकारती पाँव पीछे खींच रही थी।

"ठहर! एक बार सुन बावली!!”

रेवती बाँह फैला कांता को जाने से रोक रही थी।

वर्षों पहले गुज़रा समय आज फिर आँखों के सामने कांत को देख पसर गया।

उसकी कानूड़ी कुछ ही दूरी पर उसी बाड़ के पास खड़ी आँसू बहा रही थी।

”माँ तू ठीक कहती थी! म्हारी छोरी न बाप कोन्या मिला!” कहते हुए माँ से लिपट कांता फूट-फुटकर रोने लगी।

गाँव की सबसे होनहार ज़िद्दी,पढ़ी-लिखी लड़की कांता उस समय की पाँचवी पास। दुनिया से टकराने का जुनून,विधवा हो प्रेम विवाह रचाकर निकली थी गाँव से।

”मैं न कहती मरो मास न छोड़े ये भेड़िया,  तू तो जीवती निकली।” कहते हुए रेवती बेटी और नातिन की हालत पर फूट-फूट कर रोने लगी थी।

”कितनी उम्र में लेकर भाग गया छोरी ने तेरो ख़सम।” रेवती ने बेटी से सीधा प्रश्न किया।

”पंद्रह-सोलह की ही हुई थी कि हरामी की नज़र पहले से थी।” कांता ने अपनी ओढ़णी से नाक पोंछते हुए कहा।

” पाकेड़ घड़े की तो ठेकरी ही हो याँ करें।”  रेवती ने बरामदे में बैठते हुए कहा।

”माँ! मेरी छोरी ऐसी न थी, बहला-फुसला लिया उस हरामी ने।” कांता ने मुँह बनाते हुए कहा।

"छोरी तो म्हारी भी ऐसी न थी उसी हरामी ने फाँस लिया ।” रेवती ने तोरई और घीया को टोकरी से बाहर बरामदे में रखते हुए कहा।  


@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

24 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (28-09-2022) को  "शीत का होने लगा अब आगमन"  (चर्चा-अंक 4566)  पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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    1. हार्दिक आभार सर मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  2. ओह , मार्मिक .... शायद कांता आज रेवती का दर्द समझ पा रही हो । अच्छी लघु कथा ।

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    1. सही कहा आदरणीय संगीता दी जी आपने। हृदय से आभार 🙏

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  3. माँ के दर्द को माँ की दहलीज पर खड़े हो कर महसूस किया कांता ने मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी । बहुत मार्मिक लघुकथा ।

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    1. संवेदनाओं को स्पर्श करती प्रतिक्रिया आदरणीय मीना दी जी। हृदय से आभार 🙏

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  4. वाह! सार्थक रचना ।

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  5. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 29 सितंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. हृदय से आभार आदरणीय सर मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  6. माँ! मेरी छोरी ऐसी न थी, बहला-फुसला लिया उसने।” कांता मुँह बनाते हुए कहती है।
    मतलब आज भी कांता माँ का दर्द नहीं, अपनी बेटी के दुख से दुखी हैं वो भूल गई समय कभी अपने आप को दोहराता है।
    बहुत मार्मिक सत्य।


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    1. हृदय से अनेकानेक आभार आपकी प्रतिक्रिया से संबल मिला।
      सादर

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  7. ओ माइ गॉड, नीचता की पराकाष्ठा को बहुत ही मार्मिक ढंग से लिख गई है आपकी लेखनी... अद्भुत! हृदयस्पर्शी रचना आ. अनीता जी!

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    1. हृदय से आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

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  8. डॉ विभा नायक28 September 2022 at 23:12

    कितनी मार्मिक रचना! वाह विषय,भाषा, प्रस्तुतीकरण सब अद्भुत है। बहुत बधाई🌹🌹

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    1. अभिभूत हूँ आदरणीय विभा जी।
      हृदय से आभार।
      सादर स्नेह

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  9. बहुत ही हृदय स्पर्शी सृजन प्रिय अनीता ।

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    1. हृदय से आभार प्रिय शुभा दी जी।
      सादर स्नेह

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  10. हमारी सामाजिक कुरीतियों पर गहरी चोट करने वाली मार्मिक कथा !
    बाल-विवाह का प्रचलन और विधवा-विवाह का निषेध, ऐसी न जाने कितनी दुखद कहानियों को रोज़ ही जन्म देते हैं.

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    1. आदरणीय गोपेश मोहन जैसवाल जी सर सादर नमस्कार।
      सही कहा आपने, हमारी अस्वस्थ मानसिकता नित नई कहानियों को जन्म देती है। अहंकार अब आँखों से टपकने लगा है। लघुकथा को इतना पीछे इस लिए लेकर गई कि अब माँ और बेटी के संवादों में शब्द कम हाथ ज़्यादा उठते है। समझाने में शालीनता कम अप शब्दों ने कब्जा कर लिया है या चुप्पी ओढ़ रिश्तों को तोड़ दिया जाता है आपका क्या मानना है मुझे इतने पीछे जाना चाहिए?
      सादर

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  11. "माँ! मेरी छोरी ऐसी न थी, बहला-फुसला लिया उसने।” कांता मुँह बनाते हुए कहती है।"

    मतलब आज भी माँ का दर्द नहीं दिखा??
    समय दोहरा रहा है अपने आप को ,
    अलग अलग संवेदनाओं को दर्शाती मर्म स्पर्शी लघुकथा ।

    माँ के गणित को बेटी नहीं समझी उस समय, उसको बस अपनी पड़ी थी।
    और आज अपनी बेटी को जब स्वयं के स्थान पर देखती है तो भी स्वयं की नादानी नहीं बस अवसरवादी का दोष ही दिखता है‌।
    छोटी सी लघु कथा में मंथन की सामग्री भरी है।

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    1. आपकी गहन दृष्टि सृजन का मर्म स्वतः स्पष्ट कर देती है। आप आए अनेकानेक आभार आदरणीय कुसुम दी जी।
      सादर स्नेह

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  12. इतिहास दोहराता है समय भी ...तभी कहते हैं फूँक-फूँक कर कदम रखो , जैसी माँ वैसी बेटी ।
    बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब लघु कथा ।

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    1. सही कहा आपने सुधा जी समय स्वयं को दोहराता है। हम साहित्य में शब्दों में संवेदनाओं को उकेरते हैं। प्रवेश परिस्थिति सभी की भिन्न होती हैं। कर्ता स्वयं फल निर्धारित नहीं करता। वे अच्छे की अपेक्षा में ही कदम बढ़ाते हैं । कदम बढ़ाना गलत नहीं। हाँ परिणाम प्रतिकूल अवश्य आ सकते हैं। आपका स्नेह अनमोल है।
      सादर स्नेह

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