Saturday, 1 October 2022

लकीरें


                           " कामवालियों के हाथों में लकीरें नहीं होतीं!” एक ने अपने मेहँदी रचे हाथ दिखाए।

उसने पीछे मुड़कर उसको जाते हुए देखा और फिर बर्तन धोने लगी।

”तुम्हें दुख नहीं होता ?”

धुली कटोरियाँ उठाते हुए दूसरी ने कहा।

"ज़िंदगी की आपा-धापी में बिछड़ गए कहीं सुख-दुख।” पथराई आँखों से कैलेंडर को ताकते हुए,सहसा उसने चुप्पी तोड़ी और कहा-

 ” पेड़ से झड़ते पत्ते सरीखे होते हैं दुःख, सुबह ही ड्योढ़ी तक बुहारकर आई हूँ साँझ ढले फिर मिलेंगे!”

उसाँस के साथ साड़ी से हाथ पोंछते हुए ढलते सूरज की  हल्की रोशनी में अपनी सपाट हथेली पर उसने फिर से लकीरें उगानी चाहीं।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'