" कामवालियों के हाथों में लकीरें नहीं होतीं!” एक ने अपने मेहँदी रचे हाथ दिखाए।
उसने पीछे मुड़कर उसको जाते हुए देखा और फिर बर्तन धोने लगी।
”तुम्हें दुख नहीं होता ?”
धुली कटोरियाँ उठाते हुए दूसरी ने कहा।
"ज़िंदगी की आपा-धापी में बिछड़ गए कहीं सुख-दुख।” पथराई आँखों से कैलेंडर को ताकते हुए,सहसा उसने चुप्पी तोड़ी और कहा-
” पेड़ से झड़ते पत्ते सरीखे होते हैं दुःख, सुबह ही ड्योढ़ी तक बुहारकर आई हूँ साँझ ढले फिर मिलेंगे!”
उसाँस के साथ साड़ी से हाथ पोंछते हुए ढलते सूरज की हल्की रोशनी में अपनी सपाट हथेली पर उसने फिर से लकीरें उगानी चाहीं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 02 अक्तूबर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (2-10-22} को "गाँधी जी का देश"(चर्चा-अंक-4570) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
------------
कामिनी सिन्हा
अद्भुत ! लाजवाब लघु कथा ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सृजन लघुकथा
ReplyDeleteसारगर्भित संदेश समाहित किये बेहतरीन लघुकथा । अप्रतिम सृजन ।
ReplyDeleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteवाह अनीता ! सर्वहारा वर्ग के दुखों को ख़ुद महसूस कर के, उनको तुम बखूबी, अपनी कलम के माध्यम से हम तक पहुंचा देती हो.
ReplyDeleteछोटी सी लघु कथा नावक के तीर की तरह अंतर को झकझोर गई।
ReplyDeleteअद्भुत!!
अद्भुत लेखन, बहुत ही सुंदर भावपूर्ण हृदयस्पर्शी लघु कथा
ReplyDeleteभावभरी लघुकथा ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteलकीरें उगानी चाही ! जहाँ चाह वहाँ राह
ReplyDeleteलाजवाब लघुकथा ।