बारह महीनों वह काम पर जाता। रोज़ सुबह कुल्हाड़ी, दरांती कभी खुरपा-खुरपी तो कभी फावड़ा, कुदाल और कभी छोटी बाल्टी के साथ रस्सी लेकर घर से निकल जाता। शाम होते-होते जब वह वापस घर लौटता तब गुनहगार की भांति नीम के नीचे गर्दन झुकाए बैठा रहता। दो वक़्त की रोटी और दो कप चाय के लिए रसोई को घूरता रहता था।
बाहर बरामदे में खाट पर बैठी उसकी बूढ़ी माँ, उसके द्वारा मज़दूरी पर ले जाए गए औज़ार देखकर तय करती कि आज उसकी मज़दूरी क्या और कितनी होगी? उसी के साथ यह भी तय करती कि शाम को घर लौटेगा कि नहीं।
”आज कुल्हाड़ी लेकर नहीं! फावड़ा, कुदाल और छोटी बाल्टी के साथ रस्सी लेकर निकला है, अब पाँच दिन तक घर की ओर मुँह नहीं करेगा।” उसके जाते ही उसकी बूढ़ी माँ रसोई की खिड़की की ओर मुँह करते हुए ज़ोर से आवाज़ लगाती है। उसकी पत्नी बुढ़िया का मंतव्य समझ झुँझला जाती और कहती-
” जगह है क्या उसे कहीं और?” रसोई में दो-चार बर्तन गिरने की आवाज़ के साथ कुछ शब्द गूँजते अब बुढ़िया का पेट कैसे भरुँगी?
@अनीता सैनी 'दीप्ति'