चित्तौड़ दुर्ग में विजय स्तंभ के पास घूमते हुए वह रानी पद्मिनी-सी लग रही थी।
शादी के चूड़े को निहारती बलाएँ ले रही थी अपने ख़ुशहाल जीवन की, सूरज की किरणों-से चमकते सुनहरे केश, खिलखिलाता चेहरा, ख़ुशियाँ माप-तौलकर नहीं, मन की बंदिशों को लाँघती दोनों हाथों से लुटाती जा रही थी।
प्यारी-सी स्माइल के साथ उसने रिद्धि की ओर फोन बढ़ाते हुए कहा-
”दीदी! प्लीज एक पिक…।”
” हाँ! क्यों नहीं… ज़रूर !” रिद्धि ने कहा।
उसने प्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए कसकर अपने पार्टनर को जकड़ा और कैमरे के सामने प्यारी-सी मुस्कान के साथ मोहक पोज दिया।
” यार शालीनता से … ! फोटोग्राफ़ मम्मी-पापा और दादी को भी भेजने हैं।”
उसके पार्टनर ने कहा।
पार्टनर के शब्दों से वह सहम गई और शालीन लड़की के लिबास में ढलने का प्रयास करने लगी।
अगले ही पल वे दोनों रिद्धि की आँखों से ओझल हो गए।
वहीं मीराँ मंदिर के पास पद्मिनी जौहर-कुंड की वीरानियों ने रिद्धि को जैसे जकड़ लिया हो या कहूँ वह उन्हें भा गई और उन्होंने हाथ पकड़ वहीं पत्थर पर रिद्धि से बैठने का आग्रह किया। वे एक-दूसरे के प्रेम में डूब चुकी थीं। एक ओर मीराँ का विरह अश्रु बनकर लुढ़क रहा था तो दूसरी ओर पद्मिनी का जौहर-कुंड उसे जला रहा था। उन वीरांगनाओं के सतीत्व के तप से रिद्धि मोम की तरह पिघलने लगी, अचानक उसके कानों में एक स्वर कोंधा।
”तुम्हारा ही पल्लू कैसे फिसलता है यार और ये फूहड़ हँसी ?”
सहसा उसके पार्टनर का स्वर रिद्धि के कानों से टकराया परंतु उसकी आँखों ने अनदेखा करना मुनासिब समझा।
”बचकानी हरकत करते समय निगाहें इधर-उधर दौड़ा लिया करो यार।” उसका पार्टनर सहसा फिर झुँझलाया।
जो चिड़िया फुदक-फुदककर चहचहाती डालियों पर झूला झूल रही थी अब वह लोगों से नज़रें चुराने लगी।
रिद्धि ने बेचैन निगाहों से उनकी ओर देखा! और देखती ही रह गईं कि एक पद्मिनी मीराँ बनकर घर लौट रही थी।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सुन्दर कथा, एक स्त्री की खुशी को कैसे घोंट दिया गया का सुंदर चित्रण
ReplyDeleteसुंदर लेख
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ४ नवंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह अनीता ! तुमने घर-घर में घटित होने वाली कहानी सुना दी !
ReplyDeleteहमारा पुरुष-प्रधान समाज पूछ रहा है -
'पिंजड़े की मैना को भला आसमान में उड़ने की गुस्ताख़ी क्यों करनी थी?'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (05-11-2022) को "देवों का गुणगान" (चर्चा अंक-4603) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक मर्मस्पर्शी रचना.
ReplyDeleteरिद्धि ने बेचैन निगाहों से उनकी ओर देखा! और देखती ही रह गईं कि एक पद्मिनी मीराँ बनकर घर लौट रही थी।
दिल् को छू गईं ❗️
🙏!
कृपया मेरे ब्लॉग marmagyanet.blogspot.com पर "पिता" पर लिखी मेरी कविता और मेरी अन्य रचनाएँ भी अवश्य पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएं.
पिता पर लिखी इस कविता को मैंने यूट्यूब चैनल पर अपनी आवाज दी है. उसका लिंक मैंने अपने ब्लॉग में दिया है. उसे सुनकर मेरा मार्गदर्शन करें. सादर आभार ❗️ --ब्रजेन्द्र नाथ
ऐसे ही हर ख्वाहिश पर बंदिशें लगती चली जाती हैं ।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी लघुकथा ।
वाह वाह! ज़बरदस्त,शीर्षक भी प्रभावशाली है।
ReplyDeleteमार्मिक
ReplyDeleteभावपूर्ण हृदयस्पर्शी सृजन
ReplyDeleteमर्म को छूती, सराहनीय कथा ।
ReplyDeleteबस यहीं से शुरू होती ही मन का नारकीयता जबकि तन गहनों से लदा महारानी सा ।
ReplyDeleteलाजवाब लघुकथा ।
👏👏👏👏