Wednesday, 28 December 2022

बोझ

               


                ”पिछले दो वर्ष से कंधों पर ढो रहा है, अब और कितना ढोएगा इसे?” उसकी माँ ने रुँधे गले से कहा।

उसके घर के बाहर चबूतरे पर घर के अन्य सदस्यों के साथ बैठे थे उस लडके के सास-ससुर ।

वह अपराधी की भांति दीवार के सहारे खड़ा बारी-बारी से उन सभी का चेहरा घूर रहा था।

उसकी पत्नी सामने चौके में बैठी हर पाँच-दस मिनट में अपने बैठने की मुद्रा बदल रही थी। वह अपने कान उस दीवार पर टाँगना चाहती थी जहाँ पर उसी को विषय बनाकर चौपाल सजा रखी  थी।

"आज नहीं तो कल इसे मर ही जाना है... फिर…?” उसकी माँ ने सहानुभूतिपूर्ण निगाहों से अपने बेटे की ओर देखते हुए कहा।

”ऊपर से तीन-तीन छोरियाँ !” उसके पिता ने आँगन में खेल रही लड़कियों की ओर इशारा करते हुए कहा।

” साली इसके है नहीं! कुँवारी लड़की इसको कोई देगा नहीं!! तो क्या दो बच्चों की माँ को ला कर बैठाएगा घर पर ?”

उसके बड़े भाई ने झुँझलाते हुए कहा और वहाँ से उठकर चला गया।

”तो क्या ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दें इसे …?” माँ ने बड़े बेटे को नथुने फुलाकर घूरते हुए कहा।

”ब्रैस्ट कैंसर ही तो है…इलाज चल रहा है, शायद ठीक ही हो जाए!" उस औरत के भाई ने मिट्टी पर  लकड़ी चलाते हुए कहा।

”किसी और बड़े अस्पताल में बात करके देखते हैं।” औरत के पिता ने घर की ओर चौके में निगाह दौड़ाई और अपनी बेटी को लाचार नज़रों से देखते हुए कहा।

" अजी दूसरा ब्याह करवा देंगे ! पहाड़-सा जीवन अकेला थोड़ी काटेगा!” उसकी माँ ने कहा और उसने ना में गर्दन झुकाई।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Saturday, 24 December 2022

डर

           


                                   जब से सुगणी गाँव से शहर आई थी। घर की दहलीज पर खड़ी रहती। आते-जाते लोगों को देखती और देखती ही रह जाती।उसे भी वैसे ही काजल, बिंदी और चूड़ी चाहिए होती जैसी उसकी सखी सहेलियों के पास होती।

उसकी सहेली ने बताया इसे देखना नहीं आता फिर झुँझलाकर उसी ने कहा-”अरे! दिखता ही नहीं है इसे।”

 साँची ने सुगणी से पूछा तब उसने कहा-

"सब कहते हैं मेरी आँखें नहीं हैं, मेरी आँखों को जो जँचता है वह मेरे आदमी को नहीं जँचता।” कहते हुए वह अपलक कोरे आसमान को घूरने लगी।बड़ी-सी बिंदी, उससे भी बड़ी नथनी और उससे भी बड़ी-बड़ी आँखें। उन आँखों में रमे काजल पर ठहरी लालासा की दो बूँदें, जिसे उसकी आँखें बड़ी चतुराई से घोलकर पी लिया करती थी।

"मुझे देखने ही कब दिया? पहले मेरी माँ! फिर इसकी माँ!!  अब यह खुद!!!" न चाहते हुए भी वह भोर-सी बिखर गई, रात की चादर में नजरिया ढूँढ़ती।

”कुछ समय पहले तक मेरे पास भी आँखें नहीं थीं, लोग दिखाते मैं भी वही देख लेती।" साँची ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

" सच कह रही हैं आप! मेरा उपहास तो नहीं उड़ा रही न?.” वह हल्की-सी हँसी के साथ कुछ शरमाई और फिर खुद में सिमटकर रह गई।

"नहीं सच! कसम से!!” साँची ने विश्वास के साथ कहा।

"फिर!” वह धीरे से बोली।

" फिर क्या? फिर मेरे चेतना के अँखुए उग आए उन्हें महसूस किया। कुछ समय पश्चात धीरे-धीरे मुझे दिखने लगा।” साँची ने उसके विश्वास को और गहरे विश्वास के रंग में रंगते हुए कहा और उसने पैर होले से चौखट के बाहर रखा।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Thursday, 8 December 2022

मुखरित मौन

                   


                           "काल के क़दमों की आहट हूँ मैं! मेरा प्रभुत्व समय की परतों पर लिखा है।”  चट्टानों पर अपने नाम को अंकित करते हुए पुरुष ने स्त्री से कहा।

”ओह! बादल बरसे तब जानूँ मैं !” जेष्ठ महीने की तपती दुपहरी में स्त्री ने पुरुष  को परखते हुए कहा। कुछ समय पश्चात काली-पीली घटाएँ उमड़ी और बरसात की बूँदों से मिट्टी महक उठी जिसकी ख़ुशबू से  मुग्ध स्त्री झूम उठी।

” ठीक है! अब धूप के टुकड़े बिखेरकर बताओ तब लगे तुझ में कोई बात है!” साँझ के बढ़ते क़दम देख स्त्री ने पुरुष से फिर कहा।तभी माथे पर इंद्रधनुष सजाए कुछ पल के लिए आसमान धूप से चमक उठा।

"अच्छा! अब साँझ के आँगन में दीप जला कर दिखाओ ।" स्त्री ने पुरुष के सीने से लगते हुए कहा। पलक झपकते ही आसमान में तारे चमक उठे। चाँद उनकी टोह लेने देहरी पर खड़ा था। दोनों का प्रेम परवान चढ़ ही रहा था कि प्रेम में आकंठ डूबी स्त्री ने पुरुष से एक और इच्छा जताते हुए कहा- "चलो! अब मुझे पंख लगा दो।” सहसा स्त्री के शब्दों से पुरुष बिफर उठा।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Thursday, 1 December 2022

दर्द का कुआँ

                    


                           वह साँझ ढलते ही कान चौखट पर टांग दिया करती और सीपी से समंदर का स्वर सुनने को व्याकुल धड़कनों को रोक लिया करती। बलुआ मिट्टी पर हाथ फेरती प्रेम के एहसास को धीरे-धीरे जीती।

हवा के झोंके से हिली साँकल के हल्के स्वर पर उसकी आँखें बोल पड़ती और वह झट से उठकर दूर तक ताकती सुनसान रास्तों को जिन पर सिर्फ़ चाँद-सूरज का ही आना-जाना हुआ करता था।

     उसका प्रेम दुनिया के लिए पागलपन और उसके लिए एहसास था जिससे सिर्फ़ और सिर्फ़ वही जीती। घर पर नई रज़ाई और एक गद्दा रखती।

 कहती- ”पता नहीं किस बखत उसका  आना हो जाए? आख़िर घर पर तो सुख से सोए।”

हवाएँ कहतीं हैं-  कारगिल-युद्ध का स्वर सुनाई देता था उसे,वही स्वर होले-होले लील गया। वह मुंडेर पर रोटी रख कौवे के स्वर से हर्षा उठती परंतु आसमान में उड़ते हवाई जहाज़ के स्वर से घबरा जाती। अकेली नहीं रहती खेत पर! पति ने  पानी का कुआँ खुदवाकर दिया था। उसी के साथ रहती थी।

कभी कभार भोलेपन से कहती - ”कोई मेरा कुआँ चुरा ले गया तो! ” गाँव उसके लिए शहर था और शहर एक स्वप्न नगरी।

उसकी सहजता ने ही गाँव भर में ढिंढ़ोरा पिटवा दिया  कि "ग़रीब घर की लड़की थी। कुछ देखा-भाला था नहीं, पानी का कुआँ देखा; इसी से दिल लगा बैठी।”

उसके घर से कुछ दूरी पर एक सत्य का वृक्ष था , वह सत्य ही बोलता। कहता -” बच्चों को मायके लेकर गई थी, घरवालों ने पीछे से शहीद का दाह-संस्कार कर दिया। रहती भी तो गाँव के बाहर थी कौन आता कहने?  साल-छः महीने बाद पता चला तभी से वैताल बनी घूमती थी इसी चारदीवारी में, आने-जाने वालों से एक ही प्रश्न पूछती - " युद्ध कब ख़त्म होगा?”


@अनीता सैनी 'दीप्ति'