स्वप्न नहीं! भविष्य वर्तमान की आँखों में तैर रहा था और चाँद दौड़ रहा था।
”हाँ! चाँद इधर-उधर दौड़ ही रहा था!! तारे ठहरे हुए थे एक जगह!!!” स्वयं को सांत्वना देते हुए उसने भावों को कसकर जकड़ा।
धरती का पोर-पोर गहरी निद्रा में था। भूकंप की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। तूफ़ान दसों दिशाओं को चीरता हुआ चीख़ रहा था। दिशाओं की देह से टपक रहा था लहू जिसे वे बार-बार आँचल से छुपा रही थीं। इंसान की सदियों से जोड़ी ज़मीन, ख़रीदा हुआ आसमान एक गड्ढे में धँसता जा रहा था।
”धँस ही रहा था।हाँ! बार-बार धँस ही तो रहा था।” गहरे विश्वास के साथ उसने शब्दों को दोहराया।
चेतन-अवचेतन के इस खेल में उसे घड़ी की टिक-टिक साफ़ सुनाई दे रही थी।
हवा के स्वर में हाहाकार था, रेत उससे दामन छुड़ा रही थी। वृक्ष एक कोने में चुपचाप पशु-पक्षियों को गोद में लिए खड़े थे।उनकी पत्त्तियाँ समय से पहले झड़ चुकी थीं। सहसा स्वप्न के इस दृश्य से विचलित मन की पलकें उठीं, अब उसने देखा सामने खिड़की से चाँद झाँक रहा था।
”हाँ! चाँद झाँक ही रहा था!! न कि दौड़ रहा था।” उसने फिर विश्वास की गहरी सांस भरी।
फूल,फल और पत्तों रहित वृक्ष एक दम नग्न अवस्था में उसे घूर रहे थे वैसे ही अपलक घूर रही थी पड़ोसी देश की सीमा। देखते ही देखते सीमा के सींग निकल आए थे। सींगों के बढ़ते भार से वह चीख रही थी। वहाँ स्त्री-पुरुष चार पैर वाले प्राणी बन चुके थे। वे हवा में अपनी-अपनी हदें गढ़ रहे थे। बच्चे भाषा भूल गूँगे-बहरे हो चुके थे। समय अब भी घटित घटनाओं का जाएज़ा लेने में व्यस्त था। मैं मेरे की भावना खूँटे से आत्ममुग्धता की प्रथा को बाँधने घसीट रही थी।
उसने ख़ुद से कहा- ”उठो! तुम उठ क्यों नहीं रहे हो? देखो! जीवन डूब रहा है।”
अर्द्धचेतना में झूलती उसकी चेतना उसे और गहरे में डुबो रही थी।
वह चिल्लाया! बहुत ज़ोर से चिल्लाया परंतु उससे चिल्लाया नहीं गया। वह गूँगा हो चुका था ! ”हाँ! गूँगा ही हो चुका था!! ” उसने ने देखा! उसके मुँह में भी अब जीभ नहीं थी।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी लिखी रचना सोमवार 16 जनवरी 2023 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
भविष्य की ख़ौफ़नाक तस्वीर प्रस्तुत करती सुन्दर रचना
ReplyDeleteसच . स्वप्न और हकीकत दो अलग स्थितियां हैं, हकीकत से सामना होते ही जीवन कुछ और नजर आता है । सराहनीय लघुकथा।
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteआपने दर्शनशास्र ही पढ़ा दिया
सादर
विचारणीय ... विचारों का ताना-बाना गूढ़ भाव
ReplyDeleteव्यक्त करती रचना।
भयावह भविष्य का अद्भुत शब्दचित्रण ।
ReplyDeleteआदरणीया अनीता सैनी जी ! प्रणाम !
ReplyDeleteमनुष्य को कई आयाम सृष्टि में वैशिष्टय प्रदत्त करते है , परन्तु बहुधा भाषागत संस्कार अधिक अनुभूत किये जाते है !
वैश्विक घटनाओं में प्रकृति को हाशिए पर रख , निजता में आकंठ डूबी , भोगवादी जीवन शैली के कोलाहल को बहुत तीखे शब्दों में रेखांकित किया है आपने !
जय श्री राम !
ईश्वर आपके प्रयास क पूर्णता एवं श्रेष्ठता प्रदान करे , शुभकामनाएं !
एक स्वप्न जैसा भविष्य का स्वरूप विचारों के माध्यम से गूँथा है आपने जिसमें आने वाले समय के प्रति चिंता का भाव प्रस्फुटित हुआ है । लाजवाब सृजनात्मकता ।
ReplyDelete