प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'लघुकथा डॉट कॉम' में मेरी लघुकथा 'सीक्रेट फ़ाइल' प्रकाशित हुई है।
पत्रिका के संपादक-मंडल का सादर आभार।
आप भी पढ़िए मेरी लघुकथा:
https://www.laghukatha.com/
सूरज के तेवर के साथ ट्रैफ़िक की आवाजाही भी बढ़ती जा रही थी, इंतज़ार में आँखें स्कूल-बस ताक रही थीं। अपनेपन की तलाश में प्रतिदिन की तरह निधि, प्रभा के समीप आकर खड़ी हो गई और बोली-
"पता नहीं क्यों, आजकल रोज़ रात को बिजली गुल हो जाती है?
और आपके यहाँ ?” उसने माथे पर पड़े लाल निशान को रुमाल से छुपाने का प्रयास किया।
" हाँ! अक़्सर…।” प्रभा ने निधि की पीड़ा मौन में सिमटे दो शब्दों के छोटे से झूठ से पोंछी।
”कभी कोहनी चौखट से टकरा जाती है तो कभी पैर बैड से…। उस दिन वाली चूड़ियाँ तुमने कहा था बहुत अच्छी हैं, वे ऐसे ही टूट गई थीं।" सहसा फ़ाइलें उसके हाथ से छूट गईं। सी…के स्वर के साथ वह फ़ाइलें उठाने झुकी।
" विषय-विषय की बात होती है! कुछ विषयों में बिलकुल भी काम का वर्डन नहीं रहता है जैसे तुम्हारे।” इस बार काम के बोझ की सलवटें उसके माथे पर गहरे निशान छोड़ गईं।
बस-स्टॉप पर कुछ ही समय के लिए वह ख़ुद को शब्दों में यों उलझाने का सघन प्रयास करती रही, परंतु आँखों को कुछ कहने से रोक नहीं पाई। प्रभा को लेकर उसकी जिज्ञासा निरंतर बढ़ती ही जा रही थी जैसे देर-सवेर ठंडी हवा बेचैनी का सबब बन ही जाती है।
" तुम बताओ? तुम कभी नहीं टकरातीं…?” निधि ने अपने गले पर पड़े उँगलियों के निशान पर दुपट्टा डाला।
" नहीं! मैं बच्चों के साथ अकेली रहती हूँ, मेरे पति बाहर रहते हैं।” स्नेह में भीगी हल्की मुस्कान के साथ प्रभा ने ज्यो ही निधि के कंधे पर हाथ रखा, उसने देखा; सूरज पर किसी ने ढेरों बाल्टी पानी उड़ेल दिया है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (27-04-2023) को "सारे जग को रौशनी, देता है आदित्य" (चर्चा अंक 4659) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ओह!!!
ReplyDeleteसच ये सच जिसे पूरा जीवन छुपाना चाहती हैं औरतें...ऐसे खुले तो क्या कहने...
बहुत ही हृदयस्पर्शी।
हृदयस्पर्शी !!
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी
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